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Thursday, April 28, 2011

प्रकृति ईश्वर ही तो है...


मित्रों अभी कुछ दिन पहले किसी ने मुझसे कहा कि भाई आज से मै मंदिरों में भगवान् की पूजा नहीं करूँगा, आज से मै प्रकृति की पूजा करूँगा| मैंने कहा यह तो अच्छी बात है, प्रकृति ईश्वर ही तो है| किन्तु मंदिर में रखी पत्थर की मूरत भी तो प्रकृति है| क्या पत्थर प्रकृति की देन नहीं है? और फिर हम तो मानते हैं कि कण कण में ईश्वर है, तो यह ईश्वर जब प्रकृति में है तो उस पत्थर में क्यों नहीं हो सकता?
आरम्भ में ही आपको बता देना चाहता हूँ कि आप यहाँ शीर्षक पढ़ कर अनुमान न लगाएं| मै यहाँ किसी धर्म, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि की आलोचना नहीं करूँगा| क्यों कि मेरे देश की सभ्यता एवं संस्कारों ने मुझे ऐसा नहीं सिखाया| किन्तु अपनी संस्कृति का गुणगान अवश्य करूँगा जिस पर मुझे गर्व है| झूठ कहते हैं वे लोग जो किसी आस्था के उदय को अपनी आस्था के पतन का कारण मानते हैं| कोई एक सम्प्रदाय यदि आगे है तो हमारा सम्प्रदाय खतरे में है ऐसा कहना गलत है| हमारी आस्था का पतन हो रहा है यह कहना गलत है| तुम्हारी आस्था के पतन का कारण तुम स्वयं हो, हमारी आस्था के पतन का कारण हम स्वयं हैं| आस्था तुम्हारी है, फिर वह डिग कैसे सकती है और यदि तुम्हे अपनी आस्था में ही आस्था नहीं है, विशवास नहीं है तो इसमें हमारा क्या दोष? यदि आज तुम असुरक्षा का अनुभव कर रहे हो तो कारण बाहर नहीं भीतर है और यही पतन का कारण है| यदि तुम्हारी आस्था में कोई सत्य का आधार ही नहीं है तो उसका पतन हो जाना चाहिए| सत्य तक पहुँचने के भिन्न भिन्न मार्ग हो सकते हैं| हमारे मार्ग पर जो हमारे साथ नहीं उसके मार्ग को गलत कहना अनुचित है| सम्प्रदाय तो केवल मार्ग हैं, लक्ष्य नहीं| साधक और साध्य के मध्य में साधना है| साधना भी एक मार्ग ही है और यह भी भिन्न हो सकती है| अत: साधना व सम्प्रदायों की भिन्नता से हमारी संस्कृति में भेद नहीं हो सकता| और संस्कृति तो जीवन की पद्धति है जिसके हम अनुयायी हैं| जीवन में हमारी आस्था ही हमारी संस्कृति व हमारे संस्कार हैं| हम जियो और जीने दो में विश्वास रखते हैं| भारत भूमि में जन्म लेने वाले समस्त सम्प्रदायों के मार्ग भिन्न हो सकते हैं किन्तु संस्कृति एक ही है, एक ही होनी चाहिए|
भाग्यशाली हैं वे जिन्होंने इस धरा पर जन्म लिया| जहाँ स्वर्ग और मुक्ति का मार्ग है| इन्ही शब्दों में देवता भी भारत भूमि की महिमा का गान करते हैं| पवित्रता त्याग व साहसियों की भूमि| ज्ञान-विज्ञान, कला-व्यापार व औषधियों से परिपूर्ण भूमि| हमारे पूर्वजों की कर्म भूमि| यही है मेरी भारत भूमि| भारत भूमि के इस इतिहास पर हम गर्व करते हैं परन्तु मै जानता हूँ कि कुछ मैकॉले मानस पुत्रों को हीन भावना का अनुभव भी होता है| समस्या उनकी है हमारी नहीं| हम हमारी माँ से प्रेम करते हैं, उस पर व उसके पुत्रों पर गर्व करते हैं| यदि तुम्हे शर्म आती है तो यह समस्या तुम्हारी है हमारी नहीं| चाहो तो इस भूमि का त्याग कर सकते हो| जिस माँ ने अपने वीर पुत्रों को खोया है वह माँ अपने इन नालायक पुत्रों के वियोग को भी सह लेगी|
धन्य है हमारी सनातन पद्धति जिसने हमें जीना सिखाया| फिर से कह देता हूँ कि सनातन केवल कोई धर्म नहीं अपितु जीवन जीने की पद्धति है| और अब तो सभी का ऐसा मानना है कि यही सर्वश्रेष्ठ पद्दति है, जिसने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया| जियो और जीने दो का नारा दिया| इसी विश्वास के साथ हम अपनी सनातन पद्धति में जीते रहे और कभी किसी के अधिकारों का हनन नहीं किया| कभी किसी अन्य सम्प्रदाय को नष्ट करने की चेष्टा नहीं की| कभी किसी देश के संवैधानिक मूल्यों का अतिक्रमण हमने नहीं किया| बस सबसे यही आशा की कि जिस प्रकार हम प्रेम से जी रहे हैं उसी प्रकार सभी जियें| किन्तु दुर्भाग्य ही था इस माँ का जो कुछ सम्प्रदायों ने हमारी सनातन पद्धति को नष्ट करने की चेष्टा की| हज़ार वर्षों से अधिक परतंत्र रहने के बाद भी हमारी सनातन पद्धति  सुरक्षित है यही हमारी पद्धति की महानता है, यही हमारी संस्कृति की महानता है| मुझे गर्व है मेरी संस्कृति पर|
मित्रों में शीर्षक से भटका नहीं हूँ केवल भूमिका बाँध रहा हूँ|
अभी कुछ दिन पहले मैंने एक वीडियो देखा| इस वीडियो में डॉ. जाकिर नाईक से एक प्रश्न पूछा गया कि मुसलामानों को वंदेमातरम क्यों नहीं गाना चाहिए?

 उत्तर में जाकिर नाईक का कहना है कि "मुसलामानों को ही नहीं अपितु हिन्दुओं को भी वंदेमातरम नहीं गाना चाहिए| क्यों कि वंदेमातरम का अर्थ है कि मै अपने घुटनों पर बैठ कर अपनी मातृभूमि को प्रणाम करता हूँ, उसे पूजता हूँ| जबकि हिन्दू उपनिषदों और वेदों में यह लिखा है कि भगवान् का कोई रूप नहीं है, कोई प्रतिमा नहीं है, कोई मूर्ती नहीं है| फिर भी यदि हिन्दू अपनी मातृभूमि को पूजते हैं तो वे अपने ही धर्म के विरुद्ध हैं| जबकि हम मुसलमान अपनी मातृभूमि से प्रेम करते हैं, आदर करते हैं, और आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान भी इसके लिए दे सकते हैं किन्तु इसकी पूजा नहीं कर सकते| क्योंकि यह धरती खुदा ने बनाई है और हम खुदा की पूजा करते हैं| हम रचयिता की पूजा करते हैं रचना की नहीं|"
कितना तरस आता है इनकी बुद्धि पर| मै मानता हूँ कि अधिकतर भारतीय मुसलमान इस विषय पर डॉ. जाकिर नाईक से सहमत नहीं होंगे| कितनी छोटी सी बात है और वह भी इन्हें समझ नहीं आई| केवल शब्दों पर ध्यान देना गलत है उनके पीछे छिपी भावना का भी तो कुछ मूल्य है| ऐसा कह देना कि हिन्दू ही अपनी आस्था को गलत ठहरा रहे है झूठ है|
सनातन पद्धति कहती है कि ईश्वर माँ है| माँ का अर्थ केवल वह स्त्री नहीं जिसने हमें जन्म दिया है| माँ तो वह है जिससे हमारी उत्पत्ति हुई है| जिस स्त्री ने नौ मास मुझे अपनी कोख में रखा व उसके बाद असहनीय पीड़ा सहकर मुझे जन्म दिया वह स्त्री मेरी माँ है, जिस स्त्री ने मुझे पाला मेरी दाई, मेरी दादी, मेरी नानी, मेरी चाची, मेरी ताई, मेरी मासी, मेरी बुआ, मेरी मामी, मेरी बहन, मेरी भाभी ये सब मेरी माँ है,, जिस पुरुष ने मुझे जन्म दिया वह पिता मेरी माँ है, मेरे गुरु, मेरे आचार्य, मेरे शिक्षक जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया वे सब मेरी माँ हैं, जिस मिट्टी में खेलते हुए मेरा बचपन बीता वह मिट्टी मेरी माँ है, जिन खेतों ने अपनी फसलों से मेरा पेट भरा वह भूमि मेरी माँ है, जिस नदी ने अपने जल से मेरी प्यास बुझाई वह नदी मेरी माँ है, जिस वायु में मै सांस ले रहा हूँ वह वायु मेरी माँ है, जिन औषधियों ने मेरी प्राण रक्षा की वे सब जड़ीबूटियाँ मेरी माँ हैं, जिस गाय का मैंने दूध पिया वह गाय मेरी माँ है, जिन पेड़ों के फल मैंने खाए, जिनकी छाँव में मैंने गर्मी से राहत पायी वे पेड़ मेरी माँ हैं, वे बादल जो मुझ पर जल वर्षा करते हैं वे बादल मेरी माँ है, वह पर्वत जो मेरे देश की सीमाओं की रक्षा कर रहा है वह पर्वत मेरी माँ है, यह आकाश जिसे मैंने ओढ़ रखा है वह भी मेरी माँ है, वह सूर्य जो मुझे शीत से बचाता है, अन्धकार मिटाता है वह अग्नि मेरी माँ है, वह चन्द्रमा जो मुझ पर शीतल अमृत बरसाता है वह चंदा मामा मेरी माँ है, वह शिक्षा जिसे मैंने पढ़कर उन्नति कि वह विद्या मेरी माँ है, वह धन जिससे मैंने अपना भरण पोषण किया वह मेरी माँ है, आपकी माँ भी मेरी माँ है, वह सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, जीवन पद्धति, जीवन मूल्य जिनमे मेरा जीवन बीत रहा है ये सब मेरी माँ हैं| मेरे पूर्वज जिन्होंने मेरे कुल को जन्म दिया वे पुरखे मेरी माँ हैं, वे शूरवीर जिन्होंने मेरी रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी वे सब मेरी माँ हैं| इन सबसे मेरी उत्पत्ति हुई है अत: ये सब मेरी माँ हैं| और मेरी सनातन पद्धति यह कहती है कि माँ ईश्वर के तुल्य ही है तो मै मेरी माँ की पूजा क्यों न करूँ?
क्या प्रकृति ने हमें जन्म नहीं दिया? क्या हमारी मातृभूमि ने हमारा पालन पोषण नहीं किया? जब यह हमारी माँ है और हम मानते हैं कि हमारी माँ ईश्वर है तो हम उसकी पूजा क्यों न करे? सनातन पद्धति में माँ को ईश्वर के समकक्ष रखने के पीछे यह एक महत्वपूर्ण कारण है| तभी तो हम प्रकृति की पूजा करते हैं| हम माँ-बाप का सम्मान करते हैं, बड़े बुजुर्गों का आदर करते हैं यह हमारी उपासना ही तो है| हम मूर्ती पूजा करते हैं, हम पेड़ों की पूजा करते हैं, हम मिट्टी की पूजा करते हैं, हम खेतों की पूजा करते हैं, हम गायों की पूजा करते हैं, अन्य कई जीवों की पूजा करते हैं, हम नदियों, झरनों, पहाड़ों, फूलों की पूजा करते हैं, हम सूर्य की पूजा करते हैं, हम चन्द्रमा व तारों की पूजा करते हैं, हम आकाश व बादलों की पूजा करते हैं, हम ज्ञान व विद्या की पूजा करते हैं, हम धन की पूजा करते हैं, हम गाय के गोबर की भी पूजा करते हैं, हम जड़ीबूटियों की पूजा करते हैं, हम वायु की पूजा करते हैं, और भी बहुत उदाहरण हैं क्यों कि इन सबसे हमारी उत्पत्ति हुई है अत: हम इन सबकी पूजा करते हैं|
मित्रों मै फिर याद दिला दूं मै किसी की आस्था को ठेस नहीं पहुंचा रहा| ईश्वर की परिभाषा तो सभी धर्म एक ही देते हैं| जैसे इस्लाम भी यही कहता है कि खुदा का कोई रूप नहीं, आकार नहीं, उसी प्रकार हम भी तो ईश्वर की यही परिभाषा देते हैं| फिर हिन्दू और मुसलमान अलग कैसे? इसाइयत में भी परमेश्वर की यही परिभाषा है| गौतम बुद्ध व महावीर जैन ने भी यही परिभाषा दी है| तो फिर अलग धर्म की आवश्यकता ही क्या है| ऐसे तो राम धर्म, कृष्ण धर्म, हनुमान धर्म और पता नहीं क्या क्या धर्म बन जाते| क्या पता ५०० वर्षों बाद कोई गांधी धर्म ही बन जाए जो केवल महात्मा गांधी तक सीमित हो|
तो यह कह देना कि "हम अपनी मातृभूमि से प्रेम करते हैं, आदर करते हैं, और आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान भी इसके लिए दे सकते हैं किन्तु इसकी पूजा नहीं कर सकते" यह कहाँ तह उचित है? जब प्रेम को भी ईश्वर का ही नाम दिया गया है तो उस प्रेम की पूजा क्यों नहीं कर सकते? मातृभूमि से प्रेम कर सकते हैं तो उसकी पूजा क्यों नहीं कर सकते?
जैसा कि ईश्वर की परिभाषा सभी धर्मों ने सामान ही दी है तो अंतर केवल इतना है कि उस ईश्वर को मानने वाले किसी एक अनुयायी का हमने अनुसरण आरम्भ कर दिया| ईसाईयों ने प्रभु येशु का अनुसरण किया, मुसलामानों ने पैगम्बर मोहम्मद का अनुसरण आरम्भ किया, जैन धर्म ने महावीर जैन का अनुसरण आरम्भ किया, बौद्ध धर्म ने गौतम बुद्ध का अनुसरण आरम्भ किया, किन्तु सनातनियों ने प्रत्येक महानता का अनुसरण आरम्भ किया| भगवान् राम, कृष्ण, हनुमान, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, साईं, गुरु नानक देव, गुरु गोविन्द सिंह, तथागत बुद्ध, महावीर जैन, प्रभु येशु, पैगम्बर मोहम्मद आदि इन सभी का अनुसरण किया| जी हाँ सभी का| सनातनी वही है जो किसी भी धर्म स्थल पर पूरी आस्था के साथ ईश्वर की उपासना करता है| फिर चाहे वह मंदिर हो, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, जैन या बौद्ध मंदिर हो सभी स्थानों पर ईश्वर तो एक ही है| क्यों कि यह तो कण कण में विराजमान है|
फिर मै केवल रचयिता की पूजा करूँ किन्तु रचना की नहीं यह कैसे संभव है? मै मेरी माँ से प्रेम करता हूँ, तो जाहिर है मेरी माँ से जुडी प्रत्येक वस्तु भी मुझे प्रिय है| मेरी माँ के हाथ का भोजन जो वह मुझे प्रेम से खिलाती है, वह मुझे प्रिय है, क्यों कि यह मेरी माँ की रचना है| मेरी माँ की वह लोरी जिसे गाकर वह मुझे सुलाती है वह भी मुझे प्रिय है, मेरी माँ की वह डांट जो मेरे द्वारा कोई गलती करने पर मुझे पड़ती है वह भी मुझे प्रिय है| मेरी माँ तो रचयिता है जबकि ये सब उसकी रचनाएं हैं अत: ये सब मुझे प्रिय हैं|

अंत में मै फिर से दोहराता हूँ कि मै किसी भी धर्म, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि का विरोधी नहीं हूँ| मै मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि सभी स्थानों पर जाना पसंद करता हूँ| मै भगवान् राम, पैगम्बर मोहम्मद, प्रभु येशु, गुरु नानक आदि सभी की उपासना करता हूँ| क्यों कि यही मेरी सनातन पद्धति ने मुझे सिखाया है| आशा करता हूँ कि सभी सम्प्रदायों के अनुयायी इसे समझेंगे| अमानवीय कृत चाहे वे किसी भी धर्म में होते हों, उनकी निंदा करनी ही चाहिए| फिर चाहे वह अन्य धर्म के अनुयाइयों को पीड़ा देना हो, उनसे घृणा करना हो, निर्दोष जीवों की हत्या हो या कुछ और यह स्वीकार करने योग्य नहीं है|

नोट: इसे कोई प्रवचन न समझें, यह मेरी सनातन पद्धति है|

5 comments:

  1. .

    बहुत सुन्दर , सार्थक और सामयिक आलेख है। भ्रमित होती जनता को जागरूक करता एक बेहद ज़रूरी आलेख।

    जाकिर जी के वचन सुने। बहुत तरस आया इनकी बुद्धि पर। उनसे भी ज्यादा तरस आया इन भेद चाल जनता को जो उनके बेहूदे वक्तव्यों पर तालियाँ बजा रहे थे।

    मातृभूमि से बढ़कर कुछ नहीं होता एक देशभक्त के लिए। जो देश की वंदना नहीं कर सकता वो देशभक्त कभी नहीं हो सकता।

    इस सार्थक आलेख के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  2. .

    बहुत सुन्दर , सार्थक और सामयिक आलेख है। भ्रमित होती जनता को जागरूक करता एक बेहद ज़रूरी आलेख।

    जाकिर जी के वचन सुने। बहुत तरस आया इनकी बुद्धि पर। उनसे भी ज्यादा तरस आया इन भेद चाल जनता को जो उनके बेहूदे वक्तव्यों पर तालियाँ बजा रहे थे।

    मातृभूमि से बढ़कर कुछ नहीं होता एक देशभक्त के लिए। जो देश की वंदना नहीं कर सकता वो देशभक्त कभी नहीं हो सकता।

    इस सार्थक आलेख के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  3. बहुत ही सार्थक लेखन है आपका ! आपको मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं!! पूजा का ये मतलब नहीं है की हम घुटने में झुक कर या फुल माला चढ़ा कर ही पूजा करें पूजा का अर्थ होता है यथा योग्य सत्कार !

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  4. संतुलित लेख।
    सच है कि सनातन धर्म नहीं जीवन पद्धति है। मैं खुद ही कर्मकांड में बहुत यकीन नहीं रखता लेकिन मुझे अपने हिन्दु होने पर गर्व है। यही तो मुझे सारे धर्मों का सम्मान करना सिखाता है।
    वैसे भैंस के आगे बीन बजाना, सावन के अंधे को हरा ही हरा दीखना आदि मुहावरे सुने ही होंगे आपने, कुछ लोगों पर एकदम सटीक बैठते हैं। ये पंक्तियाँ आपके लिये नहीं हैं।

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  5. प्रकृति में चोर भी हैं तो उनकी भी पूजा, चादर भी है तो उसकी भी पूजा। सम्मान और प्रेम सम्भव है पूजा नहीं। शराब भी है उसकी पूजा नहीं करते लोग।

    पर्यावरण और सभी जीवों के प्रति प्रेम और सद्भाव ही मानवता है। आप इसे चाहे जो कहें। बस जीवन ऐसा हो कि सभी शान्त, प्रसन्न रहें। बस यही चाहिए। ईश्वर रहे अपने घर ना रहे तो कोई फर्क नहीं।

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