अन्ना भक्तों(?) से स्थान स्थान पर भिन्न भिन्न प्रकार के आरोप सुनने के बाद मैं आज फिर हाज़िर हूँ| अन्ना भक्तों से कहना चाहता हूँ की मैं कल दिनाक २० अगस्त २०११ को लगातार पांचवे दिन भी सड़कों पर चिल्ला कर आया हूँ| आज भी जाने वाला हूँ| आज तो बीस हज़ार की रैली है ऊपर से गले की हालत भी पतली है| अन्ना और उनके आन्दोलन को मेरा पूरा समर्थन है| लेकिन अपने मन की बात जरुर कहूँगा|
मुझे तकलीफ यही है कि अन्ना आन्दोलन में घाट घाट पर चिल्लाने के बाद भी किसी प्रकार का कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं होने वाला| फिर भी चिल्ला रहे हैं| आखिर यह चिल्ला चोट क्यों?
शाम को आन्दोलन में ही एक मित्र भाई अभिषेक पुरोहित जी से इस विषय में काफी बात हुई| उन्होंने विषय पर बेहतर प्रकाश डाला| काफी हद तक बादल छंट चुके हैं|
सबसे बड़ी जो बात है वह यही कि अब यह कथित गांधीवादी तरीका कोई काम नहीं आने वाला| मुझे बताएं, इस गांधीवादी तरीके से इस देश को आखिर मिला ही क्या है? देरी से मिली आज़ादी, टूटी फूटी आज़ादी, और तो और टुकड़े टुकड़े हुआ देश, जिसमे भी कहीं कोई शान्ति नहीं, बस यही सब देन है गांधीवाद की इस देश को|
गांधी जी जब सौ साल पहले १९११ में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे, उस समय भारत में पहले से ही आज़ादी की लड़ाई चल रही थी|
और पहले जाएं तो १८५७ की क्रान्ति जैसा तो कोई उदाहरण ही नहीं है| एक ऐसी क्रान्ति कि पूरे भारत देश में किसी अंग्रेज़ को इसकी योजना बनने की भनक तक नही लगी| रातों रात एक ऐसा जन समूह खड़ा हो गया कि जिसने भारत में अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया| पूरे भारत में उस समय उपस्थित तीन लाख से अधिक अंग्रेजों में से केवल कुछ हज़ार ही जीवित बचे थे| ऐसा मैनेजमेंट क्या आज के समय में कहीं (कांग्रेस को छोड़कर) दिखाई देता है?
गांधी जी जब भारत आए थे, उस समय भी लड़ाई जोरों शोरों पर थी| महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक सक्रीय थे, पंजाब में लाला लाजपत राय, बंगाल में अरविन्द आदि आदि| ऐसे समय में गांधी जी के लिए कहीं कोई स्थान ही नही था| किन्तु किस्मत ने कुछ पलटा खाया कि कुछ समय बाद दुर्भाग्यवश लोकमान्य तिलक की मृत्यु हो गयी, अरविन्द सन्यासी हो गए, लालाजी अकेले रह गए, ऊपर से देश में जलियांवाला बाग़ जैसी भीषण दुर्घटना घटित हो गयी| गांधी जी को स्थापित होने के बेहतर अवसर इसी समय मिले|
नोट : मैं कहीं भी गांधी जी पर किसी प्रकार का कोई आरोप नहीं लगा रहा| मैं गांधी जी का आज भी सम्मान करता हूँ| कहानी को समझिये| गांधी जी की देश भक्ति पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं| कहीं ऐसा न हो कि अन्ना भक्तों की तरह गांधी भक्त भी मुझे राष्ट्रद्रोही करार दें| मैं केवल पुराने सन्दर्भों को आज के समय में रख रहा हूँ|
समय ही कुछ ऐसा था कि इस दुविधा की घडी में हमारे पास केवल गांधीवाद नाम का ही एक उपाय रह गया| कल तक जो देश भक्ति भारतीयों को बहुत महँगी पड़ती थी, गांधी जी ने उसे एकदम सस्ता कर दिया| आपको कुछ नही करना, केवल ठाले बैठ जाओ, सरकार का पूरा असहयोग करो, नारे लगाओं, होली जलाओ और रात को घर जा कर सो जाओ|
क्रान्ति के नाम पर देशभर में जश्न का माहौल हो गया| लोगों को तो पता भी नहीं था की आज़ादी की कीमत इतनी सस्ती है|
गांधी से तो कोई शिकायत नही, उन्होंने किसी भी प्रकार कम से कम देश को एक तो कर ही दिया था| हिन्दू हों या मुसलमान, दक्षिण भारतीय हों या उत्तर भारतीय, सभी भारत की आज़ादी के लिए एक हो गए थे| अत: गांधी से कोई शिकायत नही किन्तु क्षमा चाहूँगा कठोरता से यह कहने के लिए कि गांधीवाद ने इस देश का पौरुष नष्ट कर दिया|
आज़ादी की लड़ाई के नाम पर ठाले बैठ जाना, या गली गली जाकर गला फाड़ देना, बस यही रह गया गांधीवाद में| गांधीवाद के जो सकारात्मक कदम थे, वो तो कांग्रेस ने वैसे ही १९४७ के बाद ही मिटा दिए|
गांधी जी स्वदेशी की बात करते थे, गांधी जी स्वावलंबन की बात करते थे, गांधी जी ग्रामस्वराज की बात करते थे, गांधी जी गौ हत्या रोकने की बात करते थे, इन सब को कांग्रेस ने गांधी जी के मरते ही गांधीवाद से लुप्त कर दिया और केवल चिल्ला चोट को ही गांधीवाद बना दिया|
और आज तक परिवर्तन के नाम पर यही चिल्ला चोट चल रहा है|
हमारे ताजातरीन गांधी जी भी यही कर रहे हैं| सड़कों पर जाओ, मोमबतियां जलाओ, गला फाड़ो और लीजिये आपका देश भ्रष्टाचार मुक्त|
मुझे बताएं, क्या ये लड़ाई इतनी सस्ती है कि बिना कोई कीमत चुकाए राष्ट्र निर्माण हो जाएगा? अन्ना जी कहते हैं कि ये दूसरी आज़ादी की लड़ाई है| इस काम की बहुत बड़ी कीमत होती है| सड़क पर चिल्लाने वालों को जब यह कीमत चुकाने को कह दिया जाएगा तो अधिकतर तो उलटे पाँव अपने अपने घर लौट जाएंगे|
अन्ना ने तो फिर भी कीमत चुकाई है| साथ ही उन्होंने यह आवाहन भी किया है कि जरुरत पड़ने पर जेल भरो आन्दोलन चलाया जाए| दिल्ली में बहुतों ने जेले भरी भी हैं| इस कदम के लिए अन्ना को नमन करता हूँ| किन्तु कितने लोग ऐसा करेंगे?
यहाँ तो क्रान्ति के नाम पर जश्न का माहौल है| शाम पड़े घूमने जाते थे, अब यहाँ इकट्ठे हो रहे हैं|
किसे परवाह है इस चिल्लाहट की? आप क्या सोचते हैं कि हमारे नारे सुनकर इस कांग्रेस का ज़मीर जाग जाएगा और ये लोकपाल बना देगी?
अरे जब अंग्रेजों को ही इन चीखों से कोई फर्क नही पड़ा तो यह कांग्रेस तो अंग्रेजों से भी गयी बीती है| लोग बार बार ये क्यों भूल जाते हैं कि इन्हें आपका दिल नहीं जीतना अपितु आप पर राज करना है| आप चाहें इनसे घृणा करें अथवा प्रेम, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला|
कुछ लोग यहाँ प्रश्न उठा सकते हैं कि इस प्रकार सरकार गिराई भी तो जा सकती है, फिर कैसे राज करेंगे?
तो मित्रों आपातकाल लाने वाली भी ये कांग्रेस ही थी| आप चाहे इन्हें चुनावों में जिताएं अथवा हराएं, राज आप पर यही करना चाहेगी| और इसकी कोशिश भी पिछले ६४ वर्षों में यही रही है| तभी तो आज तक कुछ समय को छोड़कर और किसी को शासन चलाने का मौका ही नही मिला|
दूसरी बात, क्या मेरा उपयोग केवल चिल्लाने तक सीमित है? अरे ये काम तो कोई अनपढ़ गंवार भी कर लेता| मुझ जैसे पढ़े लिखे से तो भारत निर्माण के नाम पर कोई creative काम करवा लिया जाता तो अच्छा होता|
ठीक है, आज लोकपाल के लिए यदि सड़कों पर उतर कर नारेबाज़ी ही एक रास्ता है तो वो भी करूँगा| किन्तु लोकपाल के बाद क्या? क्या लोकपाल बनने के बाद मेरी भूमिका ख़त्म हो जाएगी?
मैं विनम्रता पूर्वक कहना चाहता हूँ कि मुझे अन्ना व उनके अभियान से कोई तकलीफ नही है| जन लोकपाल बन जाए तो हो सकता है यह देश के हित में ही हो| मैं अन्ना साहब हजारे का ह्रदय से सम्मान करता हूँ| किन्तु अब मुझे इन तरीकों में दम नही लग रहा|
कल ही अन्ना का तिहाड़ जेल में एक वीडियो देखा था| उसमे अन्ना काफी खुश दिखाई दे रहे हैं, किन्तु हैं तो अनशन पर| मुझे यह देखकर अच्छा नहीं लगा कि वे भारत की जनता से कह रहे हैं कि मेरी चिंता मत करों, मैं बिलकुल ठीक हूँ| मुझे आपके प्यार से ऊर्जा मिल रही है|
अन्ना कुछ भी कहें, किन्तु ७४ वर्ष के एक वृद्ध का इस प्रकार भूखा रहना आज़ाद भारत में कहाँ तक उचित है? अब हमे भूखा नहीं रहना है, भूखा मारना है उनको जिनके कारण आज अन्ना को भी भूखा रहने की नौबत आ गयी है| अन्ना भूख से मर भी जाएं तो भी भ्रष्टों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला| स्वामी निगमानंद भूख से मर गए, क्या फर्क पड़ा इस भ्रष्ट सरकार को? राम लीला मैदान में बाबा रामदेव के आन्दोलन में मैं और मुझ जैसे पता नहीं कितने ही लोग लाठियां खा चुके हैं| क्या फर्क पड़ा इस भ्रष्ट सरकार को? मैं अपने पिछले लेख में भी कह चूका हूँ की अन्ना का आन्दोलन कांग्रेस द्वारा अपने पक्ष में घुमाया जा रहा है और अन्ना को इसकी खबर तक नहीं| अपने स्वार्थों के लिए कांग्रेस को अन्ना की जान भी लेनी पड़ी तो वह पीछे नहीं हटेगी|
यही वजह है जो आज मैं यह लेख लिखने बैठा हूँ|
अत: स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि गांधीवाद के नाम पर होने वाला यह आन्दोलन सफल होना थोडा कठिन है| क्योंकि इसके चलते बार बार मुझसे पूर्ण रूप से अहिंसक होने की अपेक्षा की जाती है| जबकी भ्रष्टों के इस काले राज में अब मुझ जैसों से ऐसी अपेक्षा छोड़ देनी चाहिए|
जब तक अहिंसा से काम चल रहा है, चला रहे हैं| जरुरत पड़ी तो मरने मारने का काम भी कर सकते हैं|
अंत में जाते आते यह कहना चाहता हूँ कि इस लेख से यह न समझें कि मैं हिंसा या नक्सलवाद जैसी मुहीम को बढ़ावा दे रहा हूँ| तरीके और भी बहुत हैं| सबसे पहले तो अन्ना को बाबा रामदेव से अलग होकर नहीं साथ में रहकर मुहीम चलानी होगी| साथ ही अग्निवेश व अरुंधती राय जैसे नक्सलियों से दूरी बनानी चाहिए| अन्ना और बाबा एक हो जाएं तो इस भ्रष्ट व्यवस्था को आसानी से उखाड़ कर फेंका जा सकता है| मैं तो कहता हूँ कि दुश्मन की सोच पर वार किया जाए, विजय निश्चित है|
किन्तु फिर भी अन्ना मुझ जैसों से सड़कों पर उतरने की अपेक्षा करते हैं तो मैं रोज़ सड़कों पर उतरूंगा, चिल्लाऊंगा और सरकार को गालियाँ देता रहूँगा|