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Monday, April 15, 2013

नीतीश की हरकत से मज़ा आ गया


चौंकिए मत, शायद कुछ भाजपाई भड़क उठे, पर कल जो हुआ वो है तो एक Opportunity...

सच कहूँ, मुझे तो कल मज़ा आ गया। मैं ये नहीं कहता कि अब मोदी जी को टोपी पहन लेनी चहिये। क्यों यदि उन्होंने ऐसा किया तो यही प्रतीत होगा कि मोदी कुर्सी के भूखे हैं जो अब टोपी भी पहन ली। जबकि मोदी जी के बारे में ऐसा सोचना भी पाप है। राजनीति उनका Ambition नहीं बल्कि Mission है।
दूसरी बात यदि मोदी जी ने टोपी पहन भी ली तो हमारे द्वारा उन्हें "मुल्ला मोदी" जैसे शब्दों से सामना करना पदेगा। हम भूल जाएंगे कि अब तक मोदी ने देश के लिए कितना कुछ किया है?

खैर, अब सोचना हमे है कि हमे मोदी जी को प्रधानमंत्री बनाना है या मोदी जी की नीतियों से देश का विकास करना है? जब कांग्रेस में सोनिया के प्रधानमन्त्री न होते हुए भी सोनिया भक्तों द्वारा सोनिया की नीतियों पर ही भ्रष्टाचार होता है तो भाजपा में मोदी के प्रधानमंत्री न होते हुए भी मोदी भक्तों द्वारा मोदी की नीतियों पर विकास क्यों नहीं हो सकता?

खैर, कल जो हुआ उसके विषय में बात करते है। नीतीश ने जो मोदी जी को नसीहतें देने का काम किया है वह पूरी तरह निंदनीय है। इस विषय पर कुछ दिन पहले चेतन भगत का एक लेख पढ़ा था, जिसमे उन्होंने नीतीश को  जवाब देते हुए कहा था कि जब अधिकतर जनता मोदी जी को देश के प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है तो जनता की ख़ुशी पर आपको आपत्ति क्यों है? प्रधानमंत्री कौन बने यह तय करने का अधिकार तो जनता के पास होना चहिये। फिर आप जैसे राजनेता जनता के इस अधिकार को छीन स्वयं को जनप्रतिनिधि के रूप में कैसे रख सकते हैं?

खैर, नीतीश की करतूत निंदनीय है, पर मुझे तो फिर भी मज़ा आ गया। भाई, मौजूदा हालातों में अवसर की प्रतीक्षा रहती है कि कोई ऐसा अवसर मिले कि हमे कांग्रेस नामक बीमारी को ख़त्म कर आगे कुछ काम कर सकेँ। नीतीश ने वह अवसर दे दिया। भाजपा की जवाबी कार्यवाही भी गज़ब की थी। ऐसी दबंगई की उम्मीद भाजपा से बहुत पहले से थी, परन्तु अभी तक निराशा ही मिली थी। परन्तु कल की प्रतिक्रिया के बाद यह तो लगने लगा है कि भाजपा मोदी के विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है।
कुल मिलाकर भाजपा की प्रतिक्रिया से अब ऐसा माहौल दिखाई दे रहा है कि जैसे BJP और JDU में फुट पड़ रही है। भाजपा को अभी प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी पर शांत ही रहना चाहिए। इस भ्रम को बने रहने दो। क्योंकि यदि भाजपा किसी और का नाम आगे करती है तो हम भाजपाई ही भाजपा का सत्यानाश कर देंगे। क्योंकि हम बहुत जल्दी व्यक्तिवादी हो जाते हैं। विषय पर कभी ध्यान ही नहीं देते। हम यह भी नहीं सोच पाते कि इस देश के लिए मोदी एक व्यक्ति नहीं एक विषय है, एक सोच है, एक विचार है, एक योजना है, एक नीति है। यदि खुद मोदी जी से पूछा जाए कि उनके लिए क्या महत्वपूर्ण है तो वे अपने भक्तों को यही कहते नज़र आएँगे कि मित्रों, मेरी पार्टी को अपने तरीके से काम करने दो। हम एक योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ रहे हैं, आप हमारे समर्थक कृपया इस योजना को हाशिये पर मत डालिए। BJP एक पार्टी है और उसे किसी एक व्यक्ति से जोड़कर नहीं देखा जा सकता।
व्यक्तिगत रूप से मेरी भी यही इच्छा है कि मोदी जैसी हस्ती को इस देश का प्रधानमंत्री बनना चाहिए। परन्तु वर्तमान में यह बहुत कठिन है। कांग्रेस ने इस देश को ऐसे हाशिये पर पहुंचा दिया है कि अब अच्छे लोगों के लिए रास्ता इतना सुगम नहीं रहा। हमे अपनी नीतियों में कुछ परिवर्तन कर भावुकता के स्थान पर दिमाग चलाना होगा।
प्रधानमंत्री कोई बने इससे क्या फर्क पड़ता है? 1998 में जिस आडवानी को हम उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे आज उसे ही गालियाँ देने पर तुले हैं।   मोदी स्वयं कई बार कह चुके हैं कि आडवानी मेरे गुरु हैं। मैंने तो राजनीति का पाठ उन्ही से सीखा है। 2014 के मंत्रिमंडल में यदि प्रधानमंत्री आडवानी और गृहमंत्री मोदी हों तो ये दोनों इस देश को नयी ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। आडवानी एक कुशी राजनीतिज्ञ हैं। उन्हें एक बात समझ आ गयी है कि जिस हिन्दू की रक्षा के लिए हम राजनैतिक शत्रुता पाले बैठे हैं, वह हिन्दू ही कभी हमारे साथ नहीं हो सकता। अत: उन्होंने अपने नीतियों में कुछ परिवर्तन ज़रूर किया है किन्तु अन्दर से वही हैं जो पहले थे।
अरे मैं तो कहता हूँ कि यदि मनमोहन सिंह जैसा कोई व्यक्ति ही ढूंढ लो। जिसे मोदी अपने अनुसार चलाए। स्वयं मोदी जी के लिए प्रधानमंत्री बनना इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना देश को आगे बढ़ाना है।

अभी नीतीश को कांग्रेस के मुस्लिम वोट बैंक में कुछ सेंध लगाने दो। क्योंकि हिन्दुओं के भरोसे तो इस देश में कभी सरकारें बनती ही नहीं। हिन्दुओं को अपने घर-परिवार, नौकरी व आराम से फुर्सत कहाँ है?
इसीलिए नीतीश के जो दिल में आए उसे करने दिया जाए और भाजपा अपनी नीतियाँ वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित करे।
हमे इतना ध्यान रखना चाहिए कि जीतने के लिए दुश्मन को हराना पड़ता है। और दुश्मन यदि कपट से भरा हो तो हमे महाकपटी बनना पड़ता है। अत: कल की नितीश की हरकत को एक अवसर के रूप में लेना चाहिए। हमे नितीश का उपयोग ठीक उसी प्रकार करना चाहिए जैसे कांग्रेस अरविन्द केजरीवाल का कर रही है।

Sunday, February 10, 2013

कबाड़ी को कबाड़ बेचना भी असभ्यता???


मित्रों, ठेले पर सब्जी खरीदना अब शर्म की बात है। उसके लिए भी रिलायंस फ्रेश, मोर, सुभिक्षा, बिग बाज़ार अथवा कोई अन्य मेगा मार्केट की ही दरकार है। रद्दी वाले को रद्दी बेचना भी शर्म की बात है, चाहे घर में रद्दी का भण्डार ही क्यों न लग जाए। अब इसके लिए भी तो कुछ हाई-फाई "sophisticated" व्यवस्था होनी ही चाहिए।
मेरी नज़र में तो यह एक मानसिक व्याधि है। चेन्नई के 32 वर्षीय जोसेफ जोगेन इसी मानसिक व्याधि से ग्रस्त लगे।
आज सुबह का अखबार पढ़ रहा था तो एक लेख पर दृष्टि ठहर गयी। बड़े-बड़े शहरों की कई उच्च वर्गीय सोसायटीज़ में रद्दी वालों का प्रवेश वर्जित है। कारण यह है कि इन रईसजादों को किसी गरीब रद्दी वाले को रद्दी बेचने में शर्म आती है। कहीं किसी पडौसी ने देख लिया तो क्या सोचेगा कि देखों थोड़े से पैसों के लिए घर में जमा रद्दी, प्लास्टिक व अन्य कबाड़ किसी कबाड़ी को बेच रहा है? शायद कबाड़ी को कबाड़ बेचने वाला व्यक्ति भी इस सभ्य(?) समाज में भंगारी ही कहलाता है। गोया कि चाहे घर में रद्दी का भण्डार ही इकठ्ठा क्यों न हो जाए, किसी कबाड़ी का पेट भर के हम अपनी शान(?) में दाग नहीं लगा सकते।
हालांकि अखबार में पढ़ा यह लेख व्यापर प्रबंधन की सीख देता नज़र आया कि कैसे रद्दी वाले से पीछा छुड़ा कर आप एक सफल कॉर्प्रट भी बन सकते हैं व एक सभ्य समाजी भी।
चेन्नई के 32 वर्षीय जोसेफ जोगेन आई टी प्रोफेशनल हैं जिन्हें भी कबाड़ी को अपने घर की रद्दी बेचने में शर्म आती है। ऐसे में उनके घर में रद्दी के जमावड़े ने उन्हें परेशान कर दिया। बस यहीं से उनके दिमाग में बिजनस का एक नया आइडिया आ गया। उन्होंने अपनी पत्नी सुजाता (जो खुद एक आई टी प्रोफेशनल हैं) के साथ मिलकर अपनी खुद की कबाड़ी की दूकान खोली। फर्क सिर्फ इतना था कि कहीं उन पर कबाड़ी का तमगा न लग जाए इसलिए इस भंगार की दूकान को एक कंपनी के रूप में रजिस्टर्ड करवाया जिसका नाम है "कुप्पाथोट्टी.कॉम"। इस कम्पनी की वेबसाईट पर चेन्नई की "Sophisticated Society" के लिए अपनी शान(?) को बचाए रखने का एक रामबाण नुस्खा है। अब रद्दी वाले को रद्दी बेचने की शर्म से मुक्ति क्योंकि अब आपके घर के कबाड़ को खरीदने कोई कबाड़ी नहीं अपितु यूनिफॉर्म पहने कम्पनी के "Collection Boys" आएँगे। आपको सिर्फ कम्पनी की वेबसाईट पर रजिस्ट्रेशन करवाना है और उसके बाद कम्पनी के कॉल सेंटर पर कॉल कर अपने घर कबाड़ ले जाने के लिए कलेक्शन बॉय को बुलाना है। कॉल सेंटर पर भी सुरीली आवाज़ की बालाओं को बैठाया गया है ताकि भंगार बेचने वालों का कुछ मनोरंजन भी हो जाए। अब जाहिर सी बात है कहाँ वह मैले-कुचेले कपडे पहना गरीब रद्दी वाला और कहाँ ये कॉल सेंटर गर्ल्स व कलेक्शन बॉय?
और एक बात, अन्य मेगा मार्केट्स की तरह यहाँ भी आपको छूट मिलेगी। अर्थात जो रद्दी कोई रद्दी वाला आपसे करीब नौ रु/किग्रा के भाव में खरीदता था उसके लिए कम्पनी आपको दस या ग्यारह का भाव लगा सकती है। एक तो गरीबों के पेट पर लात मारी और अमीरों से दो रुपये ज्यादा ही मिल गए, मतलब अब इस "Sophisticated Society" की इज्जत पर कोई दाग लगने का सवाल ही नहीं। प्रोफेशनलिज्म का ज़माना है और हमे अपनी इज्जत को भी तो बचाना है।
अब आपके घर की रद्दी किसी गरीब ठेले वाले को नहीं अपितु किसी ऐसी ही कम्पनी को बिकना शुरू जिसके पास मैनेजिंग डायरेक्टर भी है। सब कुछ कितना प्रोफेशनल, कितना विकसित लगता है न? अब गरीबों को हटाओ और प्रोफेशनलिज्म लाओ। ऐसे ही तो होता है एक सभ्य एवं विकसित देश का निर्माण।

जोसेफ जोगेन की यह कम्पनी नवम्बर 2010 में चेन्नई से शुरू हुई और अब देश के कई हिस्सों में फ़ैल चुकी है। धीरे-धीरे मध्यम वर्ग भी इस प्रोफेशनलिज्म की तरफ आकर्षित हो रहा है। जिस जोसेफ जोगेन को "कबाड़ी" शब्द से इतनी घृणा व शर्म थी, अंत में वह भी तो "कबाड़ी" ही बन गया। चाहे कितनी भी बड़ी कम्पनी खोल ली, काम तो "कबाड़ी" का ही किया न? फिर इस "कबाड़ी" शब्द में इतनी हीन भावना क्यों?

ऐसे नहीं होता विकास। ज़रूरत अपनी घटिया सोच बदलने की है। गरीबों के पेट पर लात मार कर अमीरों की जेबें भरना विकास नहीं होता।

Tuesday, January 1, 2013

2013 कहाँ, अभी तो 2012 ही है


मित्रों कल से लोगों ने दिमाग खराब कर रखा है। हैप्पी न्यू ईयर...
कौनसा ईयर है? 2013 ?
यदि सोलर कलेंडर को ही सर्वस्व मान लिया जाए तो मुझे तो नहीं लगता कि अभी 2013 आ गया है।

पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमने में 24 घंटे का समय लेती है, जिसे हम एक दिनांक मान लेते हैं। इसके अतिरिक्त सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में 365 दिन 6 घंटे का समय लेती है। इन 6 घंटों को चार बार जोड़ने पर 24 घंटों का पूरा एक दिन बन जाता है, जिसे प्रत्येक चार वर्ष बाद हम फरवरी माह के अंतिम दिन के रूप में जोड़ देते हैं ओर हर चार वर्ष बाद 29 फरवरी नामक दिनांक के दर्शन करते हैं।
बस सभी समस्याओं की जड़ यह 29 फरवरी ही है। इसके कारण प्रत्येक चौथा वर्ष 366 दिन का हो जाता है।
यह कैसे संभव है? सोलर कलेंडर के हिसाब से तो एक वर्ष वह समय है, जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर अपना एक चक्कर पूरा करती है। चक्कर पूरा करने में 366 दिन नहीं अपितु 365 दिन 6 घंटे का समय लगता है। इस लिहाज से तो एक साल जिसे हम 365 दिन का मानते आये हैं, वह भी गलत है। परन्तु फिर भी, क्योंकि इन अतिरिक्त 6 घंटों को एक दिनांक के रूप में किसी वर्ष में शमिल नहीं किया जा सकता इसलिए प्रत्येक चौथे वर्ष ही इनके अस्तित्व को स्वीकारना पड़ता है।
फिर भी किसी प्रकार इन 6 घंटों को एडजस्ट करने के लिए प्रत्येक चार वर्ष बाद 29 फरवरी का जन्म होता है। किन्तु यह एक दिन जो प्रत्येक चार साल बाद आता है, वह 365 x 4 = 1460 वर्षों के बाद एक पूरा वर्ष भी तो बना देता है। इस एक वर्ष को अब तक हम प्रत्येक चार साल बाद 29 फरवरी के रूप में एडजस्ट कर रहे थे। हिसाब से तो प्रत्येक 1460 वर्षों के बाद उसी वर्ष का पुनरागमन होना चाहिए था। अत: अभी 2013 नहीं, 2012 ही होना चाहिए। क्योंकि ईस्वी संवत मात्र 2013 वर्ष पुराना है, अत: अभी 2011 की सम्भावना नहीं है। क्योंकि इसके लिए 2920 वर्ष का समय लगेगा।
क्या झोलझाल है यह सब?

दरअसल सोलन कलेंडर के अनुसार दिनांक, माह व वर्ष केवल पृथ्वी व सूर्य की स्थिति पर निर्भर करते हैं। जबकि इस पूरे ब्रह्माण्ड में अन्य आकाशीय पिंडों को नाकारा नहीं जा सकता। इनका भी तो कोई रोल होना ही चाहिए हमारे कलेंडर में। इसीलिए विक्रम संवत में हमारे हिंदी माह पृथ्वी व सूर्य के साथ-साथ राहु, केतु, शनि, शुक्र, मंगल, बुध, ब्रहस्पति, चंद्रमा आदि के अस्तित्व को स्वीकार कर दिनांक निर्धारित करते हैं।
पृथ्वी पर होने वाली भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही महीनों को निर्धारित किया जाता है न कि लकीर के फ़कीर की तरह जनवरी-फरवरी में फंसा जाता है।
September, Octuber, November व December नामक शब्दों का उद्भव क्रमश: Sept, Oct, Nov व Dec से हुआ है, जिनका भी अर्थ क्रमश: सात, आठ, नौ व दस होता है। किन्तु ये तो क्रमंश: नवें, दसवें, ग्यारहवें व बारहवें महीने होते हैं, जबकि इन्हें क्रमश: सातवाँ, आठवा, नवां व दसवां महिना होना चाहिए था।
दरअसल ईस्वी संवत के प्रारंभ में एक वर्ष में दस ही महीने हुआ करते थे। अत: September, Octuber, November व December क्रमश: सातवें, आठवे, नवें व दसवें महीने हुआ करते थे। किन्तु अधूरे ज्ञान के आधार पर बना ईस्वीं संवत जब इन दस महीनों से एक वर्ष पूरा न कर पाया तो आनन-फानन में 31 दिन के जनवरी व 28 दिन के फरवरी का निर्माण किया गया व इन्हें वर्ष के प्रारम्भ में जोड़ दिया गया। फिर वही अतिरिक्त 6 घंटों को 29 फ़रवरी के रूप में इस कैलंडर में शामिल किया गया। ओर फिर वही झोलझाल शुरू।

इसीलिए पिछले वर्ष भी मैंने लोगों से यही अनुरोध किया था कि 1 जनवरी को कम से कम मुझे तो न्यू ईयर विश न करें। तुम्हे अज्ञानी बन पश्चिम का अन्धानुकरण करना है तो करते रहो 31 दिसंबर की रात दारू, डिस्को व बाइक पार्टी।

नोट : गृहों की स्थिति के आधार पर हिंदी मास बने हैं, इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि ज्योतिष विद्या को सर्वश्र मान ठाले बैठ जाएं। हमारी संस्कृति कर्म प्रधान है। सदी के सबसे बड़े हस्तरेखा शास्त्री पंडित भोमराज द्विवेदी ने भी कहा है कि कर्मों से हस्त रेखाएं तक बदल जाती हैं।