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Tuesday, January 1, 2013

2013 कहाँ, अभी तो 2012 ही है


मित्रों कल से लोगों ने दिमाग खराब कर रखा है। हैप्पी न्यू ईयर...
कौनसा ईयर है? 2013 ?
यदि सोलर कलेंडर को ही सर्वस्व मान लिया जाए तो मुझे तो नहीं लगता कि अभी 2013 आ गया है।

पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमने में 24 घंटे का समय लेती है, जिसे हम एक दिनांक मान लेते हैं। इसके अतिरिक्त सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में 365 दिन 6 घंटे का समय लेती है। इन 6 घंटों को चार बार जोड़ने पर 24 घंटों का पूरा एक दिन बन जाता है, जिसे प्रत्येक चार वर्ष बाद हम फरवरी माह के अंतिम दिन के रूप में जोड़ देते हैं ओर हर चार वर्ष बाद 29 फरवरी नामक दिनांक के दर्शन करते हैं।
बस सभी समस्याओं की जड़ यह 29 फरवरी ही है। इसके कारण प्रत्येक चौथा वर्ष 366 दिन का हो जाता है।
यह कैसे संभव है? सोलर कलेंडर के हिसाब से तो एक वर्ष वह समय है, जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर अपना एक चक्कर पूरा करती है। चक्कर पूरा करने में 366 दिन नहीं अपितु 365 दिन 6 घंटे का समय लगता है। इस लिहाज से तो एक साल जिसे हम 365 दिन का मानते आये हैं, वह भी गलत है। परन्तु फिर भी, क्योंकि इन अतिरिक्त 6 घंटों को एक दिनांक के रूप में किसी वर्ष में शमिल नहीं किया जा सकता इसलिए प्रत्येक चौथे वर्ष ही इनके अस्तित्व को स्वीकारना पड़ता है।
फिर भी किसी प्रकार इन 6 घंटों को एडजस्ट करने के लिए प्रत्येक चार वर्ष बाद 29 फरवरी का जन्म होता है। किन्तु यह एक दिन जो प्रत्येक चार साल बाद आता है, वह 365 x 4 = 1460 वर्षों के बाद एक पूरा वर्ष भी तो बना देता है। इस एक वर्ष को अब तक हम प्रत्येक चार साल बाद 29 फरवरी के रूप में एडजस्ट कर रहे थे। हिसाब से तो प्रत्येक 1460 वर्षों के बाद उसी वर्ष का पुनरागमन होना चाहिए था। अत: अभी 2013 नहीं, 2012 ही होना चाहिए। क्योंकि ईस्वी संवत मात्र 2013 वर्ष पुराना है, अत: अभी 2011 की सम्भावना नहीं है। क्योंकि इसके लिए 2920 वर्ष का समय लगेगा।
क्या झोलझाल है यह सब?

दरअसल सोलन कलेंडर के अनुसार दिनांक, माह व वर्ष केवल पृथ्वी व सूर्य की स्थिति पर निर्भर करते हैं। जबकि इस पूरे ब्रह्माण्ड में अन्य आकाशीय पिंडों को नाकारा नहीं जा सकता। इनका भी तो कोई रोल होना ही चाहिए हमारे कलेंडर में। इसीलिए विक्रम संवत में हमारे हिंदी माह पृथ्वी व सूर्य के साथ-साथ राहु, केतु, शनि, शुक्र, मंगल, बुध, ब्रहस्पति, चंद्रमा आदि के अस्तित्व को स्वीकार कर दिनांक निर्धारित करते हैं।
पृथ्वी पर होने वाली भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही महीनों को निर्धारित किया जाता है न कि लकीर के फ़कीर की तरह जनवरी-फरवरी में फंसा जाता है।
September, Octuber, November व December नामक शब्दों का उद्भव क्रमश: Sept, Oct, Nov व Dec से हुआ है, जिनका भी अर्थ क्रमश: सात, आठ, नौ व दस होता है। किन्तु ये तो क्रमंश: नवें, दसवें, ग्यारहवें व बारहवें महीने होते हैं, जबकि इन्हें क्रमश: सातवाँ, आठवा, नवां व दसवां महिना होना चाहिए था।
दरअसल ईस्वी संवत के प्रारंभ में एक वर्ष में दस ही महीने हुआ करते थे। अत: September, Octuber, November व December क्रमश: सातवें, आठवे, नवें व दसवें महीने हुआ करते थे। किन्तु अधूरे ज्ञान के आधार पर बना ईस्वीं संवत जब इन दस महीनों से एक वर्ष पूरा न कर पाया तो आनन-फानन में 31 दिन के जनवरी व 28 दिन के फरवरी का निर्माण किया गया व इन्हें वर्ष के प्रारम्भ में जोड़ दिया गया। फिर वही अतिरिक्त 6 घंटों को 29 फ़रवरी के रूप में इस कैलंडर में शामिल किया गया। ओर फिर वही झोलझाल शुरू।

इसीलिए पिछले वर्ष भी मैंने लोगों से यही अनुरोध किया था कि 1 जनवरी को कम से कम मुझे तो न्यू ईयर विश न करें। तुम्हे अज्ञानी बन पश्चिम का अन्धानुकरण करना है तो करते रहो 31 दिसंबर की रात दारू, डिस्को व बाइक पार्टी।

नोट : गृहों की स्थिति के आधार पर हिंदी मास बने हैं, इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि ज्योतिष विद्या को सर्वश्र मान ठाले बैठ जाएं। हमारी संस्कृति कर्म प्रधान है। सदी के सबसे बड़े हस्तरेखा शास्त्री पंडित भोमराज द्विवेदी ने भी कहा है कि कर्मों से हस्त रेखाएं तक बदल जाती हैं।