मित्रों, ठेले पर सब्जी खरीदना अब शर्म की बात है। उसके लिए भी रिलायंस फ्रेश, मोर, सुभिक्षा, बिग बाज़ार अथवा कोई अन्य मेगा मार्केट की ही दरकार है। रद्दी वाले को रद्दी बेचना भी शर्म की बात है, चाहे घर में रद्दी का भण्डार ही क्यों न लग जाए। अब इसके लिए भी तो कुछ हाई-फाई "sophisticated" व्यवस्था होनी ही चाहिए।
मेरी नज़र में तो यह एक मानसिक व्याधि है। चेन्नई के 32 वर्षीय जोसेफ जोगेन इसी मानसिक व्याधि से ग्रस्त लगे।
आज सुबह का अखबार पढ़ रहा था तो एक लेख पर दृष्टि ठहर गयी। बड़े-बड़े शहरों की कई उच्च वर्गीय सोसायटीज़ में रद्दी वालों का प्रवेश वर्जित है। कारण यह है कि इन रईसजादों को किसी गरीब रद्दी वाले को रद्दी बेचने में शर्म आती है। कहीं किसी पडौसी ने देख लिया तो क्या सोचेगा कि देखों थोड़े से पैसों के लिए घर में जमा रद्दी, प्लास्टिक व अन्य कबाड़ किसी कबाड़ी को बेच रहा है? शायद कबाड़ी को कबाड़ बेचने वाला व्यक्ति भी इस सभ्य(?) समाज में भंगारी ही कहलाता है। गोया कि चाहे घर में रद्दी का भण्डार ही इकठ्ठा क्यों न हो जाए, किसी कबाड़ी का पेट भर के हम अपनी शान(?) में दाग नहीं लगा सकते।
हालांकि अखबार में पढ़ा यह लेख व्यापर प्रबंधन की सीख देता नज़र आया कि कैसे रद्दी वाले से पीछा छुड़ा कर आप एक सफल कॉर्प्रट भी बन सकते हैं व एक सभ्य समाजी भी।
चेन्नई के 32 वर्षीय जोसेफ जोगेन आई टी प्रोफेशनल हैं जिन्हें भी कबाड़ी को अपने घर की रद्दी बेचने में शर्म आती है। ऐसे में उनके घर में रद्दी के जमावड़े ने उन्हें परेशान कर दिया। बस यहीं से उनके दिमाग में बिजनस का एक नया आइडिया आ गया। उन्होंने अपनी पत्नी सुजाता (जो खुद एक आई टी प्रोफेशनल हैं) के साथ मिलकर अपनी खुद की कबाड़ी की दूकान खोली। फर्क सिर्फ इतना था कि कहीं उन पर कबाड़ी का तमगा न लग जाए इसलिए इस भंगार की दूकान को एक कंपनी के रूप में रजिस्टर्ड करवाया जिसका नाम है "कुप्पाथोट्टी.कॉम"। इस कम्पनी की वेबसाईट पर चेन्नई की "Sophisticated Society" के लिए अपनी शान(?) को बचाए रखने का एक रामबाण नुस्खा है। अब रद्दी वाले को रद्दी बेचने की शर्म से मुक्ति क्योंकि अब आपके घर के कबाड़ को खरीदने कोई कबाड़ी नहीं अपितु यूनिफॉर्म पहने कम्पनी के "Collection Boys" आएँगे। आपको सिर्फ कम्पनी की वेबसाईट पर रजिस्ट्रेशन करवाना है और उसके बाद कम्पनी के कॉल सेंटर पर कॉल कर अपने घर कबाड़ ले जाने के लिए कलेक्शन बॉय को बुलाना है। कॉल सेंटर पर भी सुरीली आवाज़ की बालाओं को बैठाया गया है ताकि भंगार बेचने वालों का कुछ मनोरंजन भी हो जाए। अब जाहिर सी बात है कहाँ वह मैले-कुचेले कपडे पहना गरीब रद्दी वाला और कहाँ ये कॉल सेंटर गर्ल्स व कलेक्शन बॉय?
और एक बात, अन्य मेगा मार्केट्स की तरह यहाँ भी आपको छूट मिलेगी। अर्थात जो रद्दी कोई रद्दी वाला आपसे करीब नौ रु/किग्रा के भाव में खरीदता था उसके लिए कम्पनी आपको दस या ग्यारह का भाव लगा सकती है। एक तो गरीबों के पेट पर लात मारी और अमीरों से दो रुपये ज्यादा ही मिल गए, मतलब अब इस "Sophisticated Society" की इज्जत पर कोई दाग लगने का सवाल ही नहीं। प्रोफेशनलिज्म का ज़माना है और हमे अपनी इज्जत को भी तो बचाना है।
अब आपके घर की रद्दी किसी गरीब ठेले वाले को नहीं अपितु किसी ऐसी ही कम्पनी को बिकना शुरू जिसके पास मैनेजिंग डायरेक्टर भी है। सब कुछ कितना प्रोफेशनल, कितना विकसित लगता है न? अब गरीबों को हटाओ और प्रोफेशनलिज्म लाओ। ऐसे ही तो होता है एक सभ्य एवं विकसित देश का निर्माण।
जोसेफ जोगेन की यह कम्पनी नवम्बर 2010 में चेन्नई से शुरू हुई और अब देश के कई हिस्सों में फ़ैल चुकी है। धीरे-धीरे मध्यम वर्ग भी इस प्रोफेशनलिज्म की तरफ आकर्षित हो रहा है। जिस जोसेफ जोगेन को "कबाड़ी" शब्द से इतनी घृणा व शर्म थी, अंत में वह भी तो "कबाड़ी" ही बन गया। चाहे कितनी भी बड़ी कम्पनी खोल ली, काम तो "कबाड़ी" का ही किया न? फिर इस "कबाड़ी" शब्द में इतनी हीन भावना क्यों?
ऐसे नहीं होता विकास। ज़रूरत अपनी घटिया सोच बदलने की है। गरीबों के पेट पर लात मार कर अमीरों की जेबें भरना विकास नहीं होता।