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Monday, December 26, 2011

चीनी मकडजाल, अब बल व तकनीक के साथ-साथ टेलीकॉम का भी इस्तेमाल



सभी दिशाओं से भारत को घेरने के मंसूबे पालने वाला चीन अपनी गतिविधियों में सफल होता दिखाई दे रहा है| उत्तर पूर्वी व पूर्वी क्षेत्र पहले ही आतंक में है| बंगाल की खाड़ी में भी चीन अपना कब्ज़ा जमा चूका है| कश्मीर मामले में पाकिस्तान के साथ हाथ मिलाने वाला चीन हर क्षेत्र में पाकिस्तान की मदद के लिए तत्पर दिखाई दे रहा है| चीन पहले ही पाकिस्तान को मिसाइल टेक्नोलॉजी, नाभिकीय प्रौद्योगिकी, लड़ाकू विमान व अन्य उन्नत अस्त्र बाँट चूका है| भारतीय सीमाओं पर चीन का दबाव बढ़ता जा रहा है| अपनी सीमा चौकियों को भी चीन धीरे धीरे भारतीय सीमा के समीप ला रहा है| साथ ही चीनी घुसपैठ के किस्से भी आसानी से सुने जा सकते हैं| कुछ समय पहले तो हमारी सीमाओं में घुसकर चीनी सैनिकों ने पहाड़ों व चट्टानों पर चीन लिख डाला था|
खैर हमारे बेचारे प्रधानमंत्री शायद अभी तक इन सब बातों से अनजान हैं| तभी को अस्थाई शान्ति को बनाए रखने के भ्रम में बड़ी संख्या में सड़क परियोजनाएं, बाँध निर्माण परियोजनाएं, पॉवर प्लांट स्थापना, टेलीकॉम एक्सचेंज जैसे अधिकाँश काम केवल चीनी कम्पनियों को दिए आ रहे हैं|
भारत के भीतर सभी संवेदनशील स्थानों पर अपनी पकड़ बनाए रहने के लिए चीनी कम्पनियां औने-पौने दामों पर सभी प्रकार की परियोजनाए हथिया रही हैं| पूर्व राष्ट्रीय सलाहकार ने तो बहुत सी ऐसी परियोजनाओं की ओर इशारा भी किया था जो किसी न किसी संवेदनशील क्षेत्र से जुडी हैं और चीनी कम्पनियों ने अति अल्प लागत में टेंडर भरे| वहीँ दूसरी ओर बहुत सी ऐसी परियोजनाएं जिन्हें पूरा करने में चीन दक्ष है व साथ ही इस काम में चीनी कम्पनियां भारी मुनाफा भी कमा सकती थीं, किन्तु वहां चीन ने कोई टेंडर नहीं भरा जहाँ हमारा कोई संवेदनशील प्रतिष्ठान नहीं है|
उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में वेतरना बाँध का टेंडर बहुत सस्ती दर पर इसलिए भरा क्योंकि वहाँ समीप ही हमारा मिग लड़ाकू विमान असेम्बली केंद्र है, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर है व देवलाली का तोपखाना (अर्टिलीयरी सेंटर) भी है| इसी प्रकार कावेरी-गोदावरी बेसिन में सीज्मिक सर्वे का टेंडर उसने इतनी सस्ती दर पर इसलिए भरा ताकि वह वहाँ के हमारे नौसैनिक प्रतिष्ठानों पर निगरानी रख सके|
तकनीकी रूप से तो चीन ने पूरे भारत में अपनी पकड़ बना ही ली है| दैनिक जीवन में काम आने वाली चीज़ों पर भी अब चीनी कम्पनियों ने अपना अधिपत्य जमा लिया है| चीन को पता चलना चाहिए कि भारत में पतंग उड़ाई जाती है तो बस चीनी पतंग व मांजा बाज़ार में उपलब्ध है| यहाँ होली-दीवाली मनाई जाती है तो अगले त्यौहार पर चीनी पटाखे, मोमबत्तियां, बिजली के बल्ब व होली के रंग व पिचकारी बाज़ार में आसानी से सस्ते दामों पर मिल जाएंगे| यहाँ तक कि एम् आर ऍफ़ जैसी कम्पनियों ने भी यह कहकर घुटने टेक दिए कि चीनी कम्पनियां हमसे कहीं अधिक सस्ती दर पर टायर बना कर भारतीय बाज़ारों में बेच रही हैं, अत: हम भी अपनी फैक्ट्रियां अब भारत से निकाल कर चीन में स्थापित कर रहे हैं|
अपने पिछले कार्यकाल के अंतिम दिनों में मनमोहन सिंह के अरुणाचल दौरे के समय चीन ने रात दो बजे चीन में भारतीय महिला राजदूत को जगाकर यह धमकी दी कि अपने प्रधानमन्त्री से कहो कि "वह तवांग जिले में न जाएं|"
तवांग एक बहुत ही संवेदनशील क्षेत्र है| इसके एक तरफ भूटान की सीमा लगती है तो दूसरी ओर तिब्बत की| तवांग एक प्रतिष्ठित बौद्ध केंद्र है| तिब्बत पर अपने नियंत्रण को सुदृढ़ करने के लिए चीन इसे हथियाना चाहता है| वरना क्या वजह थी कि हमारी राजदूत को रात दो बजे उठाकर यह धमकी देने की कि हमारे देश का ही प्रधानमन्त्री हमारे देश के किसी जिले में न जाए| सबसे बड़ी बात तो यह कि मनमोहन ने भीगी बिल्ली की तरह डरकर तवांग जाने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया|
इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी भारत सरकार चीन कि ओर से निश्चिन्त हो आँख मूँद कर सो रही है| जब जागती है तो कभी बाबा रामदेव को चोर साबित करती है तो कभी अन्ना को भ्रष्टाचारी| अब तो उन्हें भगोड़ा भी कह डाला| यदि कोई सरकार की नींद में खलल डाले तो उसे आधी रात में पीट-पीट कर दिल्ली शहर से खदेड़ दिया जाता है|
जिस देश ने हमे खत्म करने के मंसूबे पाल रखे हैं, हमारी सरकार आँख मूँद कर अपनी सारी व्यापारिक सुविधाएं उसे ही देते चली जा रही है| रिलायंस का पावर प्लांट हो या बीएसएनएल अथवा एयरटेल का टेलीफोन एक्सचेंज, सब चीन के हाथ में है| भारत के 35 प्रतिशत से अधिक पावर प्लांट व टेलीफोन एक्सचेंज चीनी ही लगा रहे हैं| इस प्रकार तो चीन हमारे देश में किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति की फोन पर होने वाली बातें सुन सकता है| यहाँ तक कि उसे टेप भी कर सकता है| यह एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है| हमारे देश में टेलीकॉम के क्षेत्र में फैलता चीनी मकडजाल हमारे लिए एक गंभीर मुद्दा है| इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं| इसका कारण यह है कि हमने जो सी-डॉट के स्वीचिंग सिस्टम या टेलीफोन एक्सचेंज बनाए थे, वे अब बेकार हो गये हैं| क्योंकि यह टेलीकॉम की प्रथम जनरेशन थी जो अब पुरानी हो चुकी है| इसके बाद न तो हमने द्वितीय जनरेशन (2G) को विकसित किया है और न ही तृतीय जनरेशन (3G) को| ये सारे प्रोजेक्ट हमने आँख बंद कर चीन को सौंप दिए| हम 2G व 3G का ABC भी नहीं जानते वहीँ चीन ने 4G शुरू कर दिया| आश्चर्य तब हुआ जब भारत में 3G की विफलता के बाद भी चीन 4G लौंच करना चाहता है| किन्तु शर्म की बात ये हैं कि भारत सरकार ने चीनी कम्पनियों को यह सुविधा दे दी|
प्रारम्भ में मुझे यह कोरी अफवाह ही लगी थी क्योंकि मैं भी टेलीकॉम में काम कर रहा इंजिनियर हूँ और मेरा कार्य क्षेत्र 3G ही हैं| मुझे नहीं लगता था कि इस समय भारत में 4G की कोई गुंजाइश है| कोई भी कम्पनी इस प्रोजेक्ट में अपने हाथ नहीं जलाना चाहेगी| किन्तु उस समय बहुत आश्चर्य हुआ जब कुछ दिनों पहले मेरे ही एक मित्र को गुडगाँव में रिलायंस 4G के प्रोजेक्ट पर नौकरी मिली, जिसे एक चीनी कंपनी ही चला रही है| जब मैंने उससे पूछा कि यह कैसे सम्भव है? अभी तक तो भारत में पूरी तरह से 3G का काम भी नहीं हुआ, ऐसे में 4G कैसे लौंच किया जा सकता है? इस पर आश्चर्य तो उसे भी था किन्तु सबकुछ सामने ही घट रहा था|
क्या कारण है की 3G में घाटा खाने के बाद भी चीनी कम्पनियां 4G के पीछे पडी हैं| इस काम में निश्चित रूप से उन्हें भारी नुकसान होने वाला है| इससे यह साफ़ है कि ज़रूर चीनी सरकार इस काम के लिए चीनी कम्पनियों को मदद कर रही है| क्या हमारी सरकारों को इतनी सी बात पल्ले नहीं पड़ रही? क्या उन्हें किसी भी चीनी षड्यंत्र की गंध आनी बंद हो गयी या सच में ही भारत को चीन के हाथों बेच डालने के सपने सरकार ने बुन लिए हैं?
चीन समय पर भारत में 3G तो विकसित कर नहीं पाया तो ऐसे में वह 4G में अपने हाथ क्यों जला रहा है? इसका सीधा सा उत्तर यही है कि इस प्रकार भारत की जासूसी उसके लिए बहुत सरल हो जाएगी| मेरा विश्वास मानिये टेलीकॉम के सहारे किसी भी देश की खुफिया जानकारी निकालना मुश्किल काम नहीं है| इस प्रकार वह 4G में अमरीका को भी टक्कर दे सकेगा|
मुझे समझ नहीं आता कि सारी दुनिया में अपना लोहा मनवा चुके भारतीय इंजीनियरों पर आखिर उनके देश की सरकार ही विश्वास क्यों नहीं करती? अब तक पावर प्लांट अथवा टेलीकॉम के क्षेत्र में हमने जो उपलब्धियां विकसित की हैं, उन्हें आगे नहीं बढ़ाया तो परिस्थितियाँ इतनी अप्रासंगिक हो जाएंगी कि हम इस क्षेत्र में सदा के लिए चीन पर आश्रित हो जाएंगे| यह हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है| परिस्थितियाँ चिंताजनक हैं व भयंकर भी हो सकती हैं|

Wednesday, December 21, 2011

आओ मनमौनी बाबा, आज तुम्हे थोडा अर्थशास्त्र पढाएं


कौन कहता है कि मनमोहन अर्थशास्त्री है? कौन उनके नाम के आगे "डॉ." की उपाधि लगाता है?
कौन है वह, ज़रा सामने तो आए?
समाज में इस तरह की अफवाहे फैलाने का दंड तो मिलना ही चाहिए|


मनमोहन का अर्थशास्त्र, अभी आपके सामने प्रस्तुत है| मैंने अर्थशास्त्र नहीं पढ़ा है| Economics का "E" भी नहीं जानता| किन्तु अपना हिसाब किताब तो खुद ही कर लेता हूँ| उसके अनुसार ही कुछ गुस्ताखी कर रहा हूँ|


मनमौनी ने अभी रूस यात्रा की| यात्रा का मुख्य कारण था रूस के साथ किया गया एक रक्षा समझौता| जिसके अंतर्गत 20 हज़ार करोड़ की लागत से मनमौनी ने रूस से 42 सुखोई विमान खरीदे हैं| अव्वल तो मुझे इसकी ज़रूरत ही नहीं लगती| मैंने अपनी पिछली पोस्ट में भी लिखा था कि जब भारत अग्नि, पृथ्वी, ब्रह्मोस, त्रिशूल जैसी अत्याधुनिक मिसाइलें बना सकता है तो ये टुच्चे-मुच्चे लड़ाकू विमान उसके लिए कौनसी बड़ी बात है? रक्षा मंत्रालय की ओर से पहले इस दिशा में एक कारण यह दिया गया था कि DRDO (Defense Research & Development Organisation) ने 22 साल की मेहनत से जो अपना खुदका लड़ाकू विमान तैयार किया था उसे भारतीय वायु सेना ने अयोग्य घोषित कर दिया| अत: भारत लड़ाकू विमान बनाने में असक्षम है इस बात को मानते हुए अमरीका, रूस, फ्रांस आदि देशों से भारत रक्षा समझौते कर रहा है|
यह माना जा सकता है कि वह विमान अयोग्य हो, आखिर DRDO का काम कैसे चलता है यह सब जानते हैं| किन्तु क्या यह बात मानने में आती है कि इतनी भारी भरकम मिसाइलें बनाने वाला देश लड़ाकू विमान तक नहीं बना सकता? जिस देश के पास डॉ. कलाम जैसे वैज्ञानिक हों, उनके लिए सुखोई, मिग जैसे विमान क्या हैं?


चलिए एक बार यह भी मान लिया कि सच में भारत देश इस काम के लिए नालायक है| इस कारण विदेशों से ये विमान खरीदने पड़ेंगे| और इसीलिए पहले रूस से 20 हज़ार करोड़ का समझौता हुआ और बाद में फ्रांस से 10 हज़ार करोड़| मतलब कुल 30 हज़ार करोड़|
हमे विदेशों से ये विमान खरीदने हैं, मगर कितने? क्या जितनों की ज़रूरत है उतने खरीदना ज़रूरी है? क्या एक-दो विमान खरीद कर उनकी नक़ल तैयार नहीं की जा सकती? मुझे नहीं लगता कि भारतीय वैज्ञानिक और इंजिनियर इतने नालायक हैं कि नकल भी न कर सकें|
यदि ऐसा किया होता तो 30 हज़ार करोड़ का काम फ़ोकट में हो जाता|


अब ज़रा एक नज़र अर्थशास्त्र पर -


यदि 42 सुखोई न खरीद कर वैसे ही किसी पुराने सुखोई की नक़ल तैयार की जाती तो कितना खर्च आता और उससे क्या-क्या लाभ होते?
इसके लिए मैंने 30 हज़ार करोड़ का एक प्रोजेक्ट बनाया| अब मेरे पास दो विकल्प थे
या तो एक करोड़ लोगों को लेकर 30 हज़ार करोड़ का निवेश किया जाता, जिसमे प्रत्येक के हिस्से में 30 हज़ार रुपये आते| किन्तु यह अधिक कारगर न लगा तो मैंने दूसरा विकल्प सोचा|
यदि 30 हज़ार लोगों को साथ लेकर 30 हज़ार करोड़ खर्च किये जाएं तो प्रत्येक के हिस्से में एक एक करोड़ का निवेश आता है| किसी एक अच्छे वैज्ञानिक को पांच-दस लाख रुपये देकर किसी विमान की नक़ल तैयार कराई जाती| मुझे नहीं लगता कि इस काम में इससे अधिक खर्च आता| बल्कि हमारे बड़े से बड़े वैज्ञानिक यह काम फ़ोकट में ही करने को तैयार हो जाएंगे| बस जो तकनीकी खर्चा आएगा, वह झेलना पड़ेगा|
नक़ल तैयार होने के बाद तो यह काम कुछ भी नहीं रह जाएगा| यकीन मानिए, छोटा-मोटा ही सही किन्तु मैं भी एक इंजिनियर ही हूँ| विमान के आकार-प्रकार और तकनीकी का पता चलने के बाद में उसकी डुप्लीकेट कॉपी बनाना अधिक कठिन नहीं होगा| क्योंकि अब बाकी तो केवल असेम्बलिंग का काम ही बचा न| फिर भी यदि मुझ पर विश्वास न हो तो किसी अच्छे Aeronautical Engineer से संपर्क किया जा सकता है| एक वैज्ञानिक के बाद बाकी बचे 29,999 लोगों में ऐसे केवल 999 Engineers जुगाड़ना भारत सरकार के लिए कोई बड़ी बात नहीं है| इन इंजीनियर्स में कुछ Aeronautical होंगे, कुछ Electronics, कुछ Mechanical, कुछ Electrical, कुछ Metallurgy बस|
चलिए वैज्ञानिक एक नहीं पांच चाहिए तो चार इंजीनियर्स कम किये जा सकते हैं| प्रोजेक्ट 30,000 लोगों से बाहर नहीं जाएगा|
99 बड़े व अनुभवी इंजीनियर्स को 50,000 रुपये मासिक वेतन पर रखा जाए| ध्यान रहे, यह कोई बड़ी बात नहीं है| प्रत्येक के खाते में एक करोड़ रुपये हैं| चूंकि कुल विमानों की संख्या 42 है, इस हिसाब से हमारे पास करीब सवा दो अनुभवी इंजिनियर प्रति विमान के हिसाब से होंगे| जो इन सबके लिए सुपरवाइज़री करेंगे|
करीब दो सौ मध्यम क्रम के इंजीनियर्स को करीब 30-35 हज़ार के मासिक वेतन पर रखा जा सकता है| इस श्रेणी के हमारे पास करीब पांच इंजिनियर प्रति विमान के हिसाब से होंगे जो विमानों के किन्ही मुख्य हिस्सों पर ध्यान देंगे|
फिर निम्न वर्ग के 700 नए इंजीनियर्स को करीब 25,000 रुपये के मासिक वेतन पर रखा जा सकता है| इनकी उपलब्धता हमारे पास करीब 17 इंजीनियर्स प्रति विमान होगी| जो विमान के एक, दो या तीन भागों का काम सम्भालेंगे|
इंजीनियर्स के बाद करीब 5000 या इससे अधिक Technicians को करीब 15,000 के मासिक वेतन पर रख करीब 120 या अधिक Technicians प्रति विमान पर काम लिया जा सकता है, जो विमान का बाकी तकनीकी काम संभाल सकते हैं|
सबसे अंत में करीब 23,000-24,000 हज़ार अन्य छोटे-मोटे कर्मचारियों को करीब 10,000 रुपये के मासिक वेतन पर रख लिया जाए, जिससे कि हमारे पास करीब 570 अन्य कर्मचारी प्रति विमान उपलब्ध हों|
कुछ लोगों को शंका हो सकती है कि यह काम आखिर कितने दिन चलेगा| मैं कहता हूँ कि पूरा जीवन चलता रहेगा| याद रहे, प्रत्येक व्यक्ति के खाते में एक करोड़ रुपये हैं| सबसे अधिक वेतन पाने वाले इंजीनियर्स को 50,000 मासिक मिल रहा है| इस हिसाब से वह करीब 16-17 वर्षों तक यह काम कर सकता है| ठीक है, जब वेतन बढाने की बारी आए तब भी कोई चिंता नहीं| 30 हज़ार करोड़ का ब्याज इतना होगा कि ये Money Rotation जीवन भर चलता रहेगा| ये इतना धन है कि विमान को बनाने के लिए लगने वाले Raw Materials का खर्चा भी निकल सकता है| शायद थोडा बहुत ऊपर से लगाना पड़ जाए| इसमें कोई बड़ी बात नहीं है| विदेशों में इतने रुपये फूंकने से यह कहीं बेहतर है| अमरीका, रूस, फ्रांस आदि देश इसे अपने खर्चे के हिसाब से मुनाफा कमा कर बेचते हैं| हमारा माल व मजदूरी उनसे कहीं अधिक सस्ते हैं| इन देशों में मिलने वाला माल व मजदूरी हम भारतीयों के लिए कम से कम दस गुना महंगे हैं|
शायद कुछ लोगों को इस प्रकार तैयार विमानों की गुणवत्ता पर शंका हो| कोई बात नहीं इस शंका को दूर करने के लिए दो उपाय किये जा सकते हैं| एक तो इस प्रोजेक्ट में किसी भी प्रकार के आरक्षण की कोई संभावना न रखी जाए, जिससे की बेहतरीन वैज्ञानिक व इंजीनियर्स यह काम सम्भालें न की भीख में नौकरी पाने वाले, आरक्षण के द्वारा गुणी लोगों का हक़ मारने वाली जमात| दूसरा उपाय, एक से डेढ़ लाख रूपये मासिक पाने वाले बीस-पचास अति अनुभवशाली इंजीनियर्स को और रखा जा सकता है| चिंता न कीजिये, धन बहुत है| इसकी कोई कमी भारत देश में नहीं है|


आंकड़ों में थोड़ी बहुत ऊंच-नीच हो सकती है, मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ| कोई अच्छा अर्थशास्त्री इसमें संशोधन कर सकता है|


अब बताइये कि 30,000 करोड़ के इस रक्षा समझौते में किसी को क्या फायदा हुआ? सारा फायदा विदेशों को और हमारे खाते में केवल नुकसान| यदि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री अपना थोडा सा अर्थशास्त्र उपयोग में ले सकें तो 30,000 लोगों को रोज़गार भी मिल जाएगा|


ध्यान रहे चीनी ऐसा कर चुके हैं| साल 2009 में इंधन ख़त्म होने की वजह से एक अमरीकी विमान को चीन में उतारना पडा था| आधिकारिक रूप से इस विमान को मुक्त करने में चीन ने दस दिन लगा दिए और इन दस दिनों में चीन ने इस विमान की पूरी जन्मकुंडली बनाकर वैसे पचासों विमान खड़े कर दिए|
जब चीन यह काम कर सकता है तो मात्र 400 करोड़ की लागत से "चंद्रयान" बनाने वाले दिग्गज भारतीयों के लिए यह कौन सी बड़ी बात है?
अभी तो 400 करोड़ में एक विमान खरीद रहे हैं, जबकि हम भारतीय 400 करोड़ में चंद्रयान जैसा उपगृह बना चुके हैं, जिसे देख अमरीकी आँखें भी फटी रह गयीं थीं|
मुझे तो लगता है कि भारत देश को एक अत्याधुनिक लड़ाकू विमान खडा करने में अधिक से अधिक चालीस-पचास करोड़ का खर्चा आएगा या शायद उससे भी कम|


और यही अर्थशास्त्र यदि अन्य दिशाओं में भी लगाया जाए तो भारत हर वो निर्माण करने में सक्षम है, जिसकी इस समय दुनिया को आवश्यकता है| हमे तो नक़ल करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है| भारत सब कुछ खुद करने में ही सक्षम है| फिर न हमे रक्षा समझौतों की ज़रूरत होगी, न वाल मार्ट की और न ही अन्य विदेशी समानों की जो हमारे घरों तक पर अपना कब्ज़ा जमा चुके हैं|
सोचिये ज़रा, यदि इन सब विदेशी वस्तुओं का भी बहिष्कार हम भारतीय कर दें तो अपनी अर्थव्यवस्था व निर्माण से कितने ही भारतीयों को अच्छा ख़ासा रोज़गार मिल सकता है|
जब केवल लड़ाकू विमान बनाने में ही 30,000 भारतीयों को काम मिल रहा है तो सभी क्षेत्रों में स्वावलंबी होने पर कितने ही भारतीयों को रोज़गार मिलेगा| शायद काम इतना बढ़ जाएगा कि लोग कम पड़ जाएंगे| भारत देश में कोई भी बेरोजगार नहीं होगा|

नोट : आज भी हम भारतीय यह मानते हैं कि 17 दिसंबर 1903 में राईट बंधुओं ने पहला विमान बना कर अमरीका के दक्षिण कैरोलीना के समुद्री तटों पर उड़ाया जो 120 फुट की ऊंचाई तक उड़ने के बाद नीचे गिर गया था| जबकि इससे आठ वर्ष पहले एक मराठी श्री शिवकर बापूजी तलपडे ने सन 1895 में मुंबई के चौपाटी के समुद्री तट पर एक विमान बना कर उड़ाया था जो 1400 फुट की ऊंचाई तक उड़ा और सुरक्षित नीचे उतार लिया गया| मज़े की बात इसमें कोई भी चालक नहीं था| इस महान वैज्ञानिक ने इसे ज़मीन से ही नियंत्रित कर उड़ाया था| उससे भी अधिक मज़े की बात यह है कि इसकी प्रेरणा उन्होंने महर्षि भारद्वाज के विमानशास्त्र से ली जो भारद्वाज मुनि कई हज़ार साल पहले लिख चुके हैं| बाद में अंग्रेजों ने झांसा देकर उनसे इस विमान का डिजाइन हथिया लिया| इस घटना के कुछ ही समय पश्चात श्री शिवकर बापूजी तलपडे की रहस्यमय तरीके से मौत हो गयी| किन्तु मैकॉले मानस पुत्र इस सच्चाई को आज तक हमारे पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं कर पाए| जबकि आज तक राईट बंधुओं का गुणगान गाए जा रहे हैं|

Sunday, December 18, 2011

Come on HINDUS, Lets Enjoy...CHEERS

आओ हिन्दुओं जश्न मनाएं| इससे ज्यादा हम कर भी क्या सकते हैं?
देखिये अभी हफ्ते बाद क्रिसमस आने वाला है| पता नहीं कितने ही मुर्ख बधाइयां देने आएँगे| फिर हफ्ते बाद नया(?) साल| इस बार मूर्खों की तादात और भी बढ़ जाएगी| शाम को मैक डोनाल्ड, पिज्जा हट, रात भर डिस्को-पार्टी, मस्ती, बीयर, सिगरेट, बाइक्स, रॉक म्यूजिक के साथ साथ HAPPY NEW YEAR का उद्घोष, और भी पता नहीं क्या क्या...
अंग्रेजों ने आधी दुनिया पर राज किया था, किन्तु गुलामी का सबसे ज्यादा असर हम भारतीयों पर ही हुआ है| अंग्रेज़ बनने की होड़ मची है| अँगरेज़ तो सोच रहे होंगे की फालतू ही दो सौ सालों तक अपने घर से दूर झक मारी| यदि मैकॉले पहले ही पैदा हो गया होता तो अंग्रेज़ इंग्लैण्ड में बैठकर ही हिन्दुस्तान चलाते|

हमारे आदरणीय(?), पूजनीय(?), सम्मानीय(?) प्रधानमन्त्री श्री(?) श्री(?)......100000000......8 मनमौनी सिंह का रूस दौरा हुआ| क्यों हुआ वो बाद में|
पहले तो उनके रूसी दौरे के दो दिन बाद ही इस्कॉन के संस्थापक "ए सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद" द्वारा रचित "भगवत गीता एज इट इज" को रूस में प्रतिबंधित कर देने की तैयारी हो रही है| कल सोमवार तक अदालत का अंतिम निर्णय भी आ जाएगा| रूसियों का देश है, वो चाहे जो कर सकते हैं| किन्तु उनका यह कहना कि "गीता एक उग्रवाद को बढ़ावा देने वाली किताब है जिससे केवल कलह-कलेश फैलता है", अनुचित है और सहन करने लायक नहीं है| उसपर मनमौनी का यह कहना कि हम रूस के इस फैसले की कड़ी निंदा करते हैं, आग में घासलेट डालने का काम करता है| उनसे इससे अधिक अब कोई अपेक्षा भी नहीं रह गयी| निंदा ही करनी है तो वह तो मैं भी कर सकता हूँ, फिर मुझे ही प्रधानमंत्री बना दो| शायद निंदा से ऊपर उठकर कुछ तो कर ही लेंगे|
खैर यहाँ किसी को खबर नहीं है| इस साल के जून से ही रूस में भगवत गीता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए कार्यवाही चल रही है| मॉस्को के 15000 हिन्दुओं व कई इस्कॉन अनुयायियों ने भारत के प्रधानमंत्री की रूस यात्रा को देखते हुए उनसे गुहार लगाईं थी कि वे गीता पर प्रतिबन्ध को रोकने के लिए कोई कूटनीतिक प्रयास करें| अब क्या कूटनीतिक प्रयास हो सकते थे वो भी बाद में|
पहले तो ये कि जब पिछले साल अमरीका के एक पादरी फादर जॉन्स ने 9/11 को "कुरआन बर्न डे" ही कह दिया था, तब दुनिया के सभी सत्तर इस्लामी मुल्कों में आग लग गयी थी| बारिश कहीं हो रही थी और छतरियां कहीं और खुल गयी थी| खैर ये भी उन मुल्कों का एक सकारात्मक कदम था| कम से कम अपने धर्म ग्रंथों के अपमान को सहन तो नहीं करते|
हिन्दुओं के वश में ऐसा कुछ नहीं है| कुछ हिन्दू तो ये स्यापा पा रहे हैं कि रूसियों का देश है, वे जो चाहे कर सकते हैं| हम क्यों चिंता करें? कुछ का तो यह भी कहना है कि जब 85 प्रतिशत हिन्दू गीता पढना तो दूर उसे खरीदते तक नहीं हैं तो हम क्यों चिंता करें गीता की|
कम से कम ऐसे ठन्डे (सेक्युलर और शांतिप्रिय) हिन्दुओं को तो गीता अवश्य ही पढनी चाहिए| यदि गीता पढी होती तो गीता के इस अपमान पर महाभारत अवश्य हो जाता|

खैर इन मूर्खों पर ध्यान देने से अच्छा है, पहले ये जाने कि मनमौनी का रूस दौरा क्यों हुआ था?
दरअसल मनमोहन सिंह ने रूस के साथ एक रक्षा समझौता किया था| जिसके लिए वे रूस से 20 हज़ार करोड़ की लागत से 42 सुखोई विमान खरीदने गए थे| रूस की अर्थव्यवस्था भारत जैसे देशों को अपने हथियार बेचने से चलती है| चाहे जंगी जहाज गोबोंचोव हो या मिग और सुखोई जैसे विमान| अमरीका और रूस जैसे देशों का धंधा ही यह है| यहीं से मनमोहन कुछ कूटनीतिक प्रयास कर सकते थे, जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है| इस रक्षा समझौते के चलते अपने नाक, आँख, कान, हाथ, टांग सब ऊपर रखे जा सकते थे| किन्तु मनमौनी के लिए इतनी दलेरी संभव नहीं|
अब कुछों के मन में प्रश्न आ सकता है कि ये विमान रूस से नहीं खरीदते तो कहाँ से आते? किसी से लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं है| एक ओर तो भारतीय वैज्ञानिक अग्नि, पृथ्वी, ब्रह्मोस जैसी मिसाइलें बना लेते हैं, वहीँ दूसरी ओर टुच्चे टुच्चे विमान व जहाज बनाने में भारत असक्षम है| क्या ये बात मानने में आती है? चलो यह भी मान लिया कि ये सब भारत में नहीं बन सकता, तो भी 42 विमान खरीदने की क्या ज़रूरत है? एक खरीदो और बाकी 41 क्या 4100 उसकी देखा देखा बना लो| भाई नक़ल तो कर सकते हैं, अब इतना गया गुज़रा देश भी नहीं है हमारा| 2009 में जब एक अमरीकी लड़ाकू विमान को इंधन ख़त्म होने के कारण चीन में उतारना पडा तो आधिकारिक रूप से उसे छोड़ने के लिए चीन ने दस दिन लगा दिए| इन दस दिनों में चीन ने उस विमान की सारी जन्म कुंडली बना कर वैसे पचासों विमान खड़े कर दिए| जब चून्धी आँखों वाले चार फुटिए ऐसा कर सकते हैं तो हम तो उनसे कहीं बेहतर हैं न|

दूसरी घटना पाकिस्तान से आए 151 हिन्दुओं की है, जो भारत में ही यहाँ-वहां भटक रहे हैं| इन शरणार्थियों के लिए अब भारत में ही कोई जगह नहीं बची है| ये पाकिस्तान दुबारा जाना नहीं चाहते| क्योंकि वहां न केवल इनकी जान को खतरा है, बल्कि इनकी बहन-बेटियों की इज्ज़त भी खतरे में है| कईयों ने अपने स्वजनों व इज्ज़त को खोया है| किन्तु भारत में बांग्लादेश से आए 5-6 करोड़ मुसलमान शरणार्थियों के लिए तो जगह है किन्तु इन 151 हिन्दुओं के लिए नहीं| कभी दिल्ली में बैठी सरकार इन्हें भगा देती है तो कभी उत्तर प्रदेश की माया इन्हें नोएडा से फटकार कर निकाल देती है| कल शाम को उत्तर प्रदेश पुलिस ने नोएडा के एक मंदिर में शरणार्थी इन हिन्दुओं को जबरन बाहर निकाल कर एक हाइवे पर छोड़ दिया| कड़कती सर्दी में इनका क्या होगा, इसकी चिंता किसी को नहीं है| बांग्लादेशी मुसलामानों को तो सरकार राशन कार्ड व वोटर आई डी कार्ड देना चाहती है, जबकि इन हिन्दुओं के लिए सर छुपाने की जगह तक नहीं|

अंत में जाते-जाते एक अनुरोध - कृपया कोई हिन्दू मुझे MERRY CHRISTMAS अथवा HAPPY NEW YEAR जैसे शब्द न कहें| अन्यथा औपचारिकता के लिए SAME TO YOU भी नहीं कह सकूँगा|