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Sunday, September 19, 2010

माधवन हमें आप पर गर्व है

मित्रों आपने हमारे देश के गौरवशाली इंजिनियर आर माधवन का नाम तो सुना ही होगा. नहीं सुना तो मै आपको उनके विषय में कुछ बताना चाहता हूँ. मित्रों माधवन से आपका परिचय करवाने का मेरा लक्ष्य देश की युवा शक्ति को जगाना है. जैसा कि आप जानते ही हैं कि हमारे देश की युवा पीढ़ी(विशेषत: पढ़ी लिखी) पर विदेश में नौकरी हाई फाई लाइफ स्टाइल का भूत सवार है, मै ये नहीं कहता कि विदेश जाना और वहां नौकरी करना बुरा है, यदि कुछ अच्छा सीखने को मिले तो उसे कहीं से भी सीखना चाहिए, किन्तु अंत तो यहीं है.
          मित्रों तकनीकी भारत को बदल रही है यह हम सब जानते हैं, लेकिन यदि तकनीक का उपयोग भारत की मूल समस्याओं को दूर करने में हो जाये तो यह सोने में सुहागा होगा. हम अक्सर भारत के आईआईटी पास-आउट छात्रों के बारे में पढ़ते रहते हैं, उनकी ऊँची तनख्वाहों के बारे में, उनके तकनीकी कौशल के बारे में, विश्व में उनकी प्रतिभा के चर्चे के बारे में भीगत कुछ वर्षों में आईआईटी छात्रों में एक विशिष्ट बदलाव देखने में आ रहा है, वह है मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों को ठोकर मारकर अपने मन का काम करना”, उनमें भारत को आमूलचूल बदलने की तड़प दिखाई देने लगी है और भले ही अभी इनकी संख्या कम हो, लेकिन आने वाले कुछ ही सालों में यह तेजी से बढ़ेगी
         
मित्रों अब चर्चा ज़रा माधवन की करते हैं. श्री आर माधवन चेन्नई के समीप चेंगलपट्टू गाँव के निवासी हैं. मित्रों माधवन ने आईआईटी चेन्नई से machenical engineering  में engineering की है किन्तु बचपन से वे engineer नहीं किसान बनने का स्वप्न देखते थे जैसा कि कोई सोचने की भी हिम्मत इस देश में नहीं करता. बचपन में वे अपने हे घर में सब्जियां उगाया करते थे व् अपनी माँ को बनाने के लिये कहते थे. अपनी उगाई सब्जियों को खाकर उनके हर्ष का ठिकाना नहीं रहता था.
          किन्तु मित्रों जैसा कि हमारे देश में होता है माँ बाप(विशेषत: माध्यम व् उच्च वर्गीय) कभी भी अपने बच्चो को इस काम के लिये प्रोत्साहित नहीं करते. वैसा ही माधवन के साथ भी हुआ. पिता के दबाव में आकर उन्होंने आईआईटी जेईई की परीक्षा दी. बचपन से ही मिघावी छात्र माधवन का चयन IIT Chennai में Machenical Engineering में हुआ. और जैसा कि होता है IIT से Engineering करने के बाद छात्रों के सामने सुनहरा भविष्य होता है, विदेशों में नौकरी होती है. किन्तु माधवन ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने भारत में ONGC में काम करना स्वीकार किया. समुद्र के भीतर तेल निकालने केरिग” (Oil Rig) पर काम करने वालों को लगातार १४ दिन काम करने पर अगले १४ दिनों का सवैतनिक अवकाश दिया जाता है, माधवन ने यह काम लगातार नौ साल तक किया. १४ दिन तक मेकेनिकल इंजीनियर अगले १४ दिन में खेती-किसानी के नये-नये प्रयोग और सीखना। वे कहते हैं कि मुझे मेकेनिकल इंजीनियरिंग से भी उतना ही लगाव है और खेती में इंजीनियरिंग और तकनीक का अधिकाधिक उपयोग करना चाहता था। मेरा मानना है कि किसी भी अन्य शिक्षा के मुकाबले इंजीनियरिंगकी पढ़ाई खेती के काम में बहुत अधिक उपयोगी साबित होती है. मैंने भी खेत में काम करने, निंदाई-गुड़ाई-कटाई के लिये सरल से उपकरणों का घर पर ही निर्माण किया। अन्न-सब्जियाँ उगाने में मेहनत २०% और इंजीनियरिंग तकनीक ८०% होना चाहिये.
              ९ वर्षों तक वे ONGC में  काम करते रहे, किन्तु पहला प्यार तो खेती ही थी न, अत: ९ वर्ष पश्चात उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपनी जामा पूँजी से गाँव में ६ एकड़ ज़मीन खरीदी और वहां खेती करने लगे. जैसा की उन्होंने कहा सन् १९८९ में गाँव में पैण्ट-शर्ट पहनकर खेती करने वाला मैं पहला व्यक्ति था, और लोग मुझे आश्चर्य से देखते थे…” माधवन जी को किसी ने भी खेती नहीं सिखाई, परिवार का सहयोग मिलना तो दूर, ग्राम सेवक से लेकर कृषि विश्वविद्यालय तक ने उनके साथ असहयोग किया. चार साल तक वे अपने खेत में खेती-किसानी-फ़सल को लेकर विभिन्न प्रयोग करते रहे. ६ एकड़ में उनकी सबसे पहली फ़सल मात्र २ टन की थी और इससे वे बेहद निराश हुए, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी.
            १९९६ में उनके जीवन का टर्निंग पॉइंटसाबित हुई उनकी इज़राइल यात्रा. उन्होंने सुन रखा था कि टपक-सिंचाई” (Drip Irrigation) और जल-प्रबन्धन के मामले में इज़राइल की तकनीक सर्वोत्तम है. इज़राइल जाकर उन्होंने देखा कि भारत में एक एकड़ में एक टन उगने वाली मक्का इज़राइली एक एकड़ में सात टन कैसे उगाते हैं. जितनी जमीन पर भारत में ६ टन टमाटर उगाया जाता है, उतनी जमीन पर इज़राईली लोग २०० टन टमाटर का उत्पादन कर लेते हैं. उन्होंने इज़राइल में १५ दिन रहकर सारी तकनीकें सीखीं. वे कहते हैं किइज़राइलियों से मैंने मुख्य बात यह सीखी कि वे एक पौधे को एक इंडस्ट्री मानते हैं, यानी कि एक किलो मिरची पैदा करने वाला पौधा उनके लिये एक किलो की इंडस्ट्री है. सच तो यही है कि हम भारतवासी पानी की कद्र नहीं जानते, भारत में किसानी के काम में जितना पानी का अपव्यय होता है वह बेहद शर्मनाक है…  २००५ के आँकड़ों के अनुसार भारत में फ़सलों में जितना काम १ लीटर पानी में हो जाना चाहिये उसके लिये ७५० लीटर पानी खर्च किया जाता है…"
        मित्रों इज़राइल में उन्हे मिले एक और हमवतन, डॉ लक्ष्मणन जो एक तरह से उनके “किसानी-गुरु” माने जा सकते हैं. कैलिफ़ोर्निया में रहने वाले डॉ लक्ष्मणन पिछले ३५ सालों से अमेरिका में खेती कर रहे है और लगभग 60,000 एकड़ के मालिक हैं. उन्होंने माधवन की जिद, तपस्या और संघर्ष को देखकर उन्हें लगातार सिखाया.
        मित्रों अगस्त में धान की खेती से उनका वार्षिक सीजन शुरु होता है, दिसम्बर तक वह फ़सल तैयार हो जाती है तब वे फ़रवरी तक सब्जियाँ उगाते हैं, जब फ़रवरी में वह फ़सल निकल आती है तो सूखा प्रतिरोधी तेल-बीज की फ़सलों जैसे तिल और मूंगफ़ली के लिये खेत खाली हो जाते हैं, मई में इसकी फ़सल लेने के बाद वे एक माह तक विभिन्न सेमिनारों, विदेश यात्राओं के जरिये खेती की नई तकनीकें और नई फ़सलों के बारे में जानकारी लेने में समय बिताते हैं. जून-जुलाई में वापस अपने खेत पर पहुँचकर अगले सीजन की तैयारी में लग जाते हैं. 1999 में उन्होने और 4 एकड़ जमीन खरीद ली. मित्रों उनका लक्ष्य प्रति एकड़ १ लाख रुपये कमाना है, और अभी वे ५९ हज़ार तक पहुँच गए हैं.
             उनके दिल में भारत के गरीबों के लिये एक तड़प है, वे कहते हैं “अमेरिका में चार घंटे काम करके एक श्रमिक तीन दिन की रोटी के लायक कमाई कर सकता है, जबकि भारत के गाँवों में पूरा दिन काम करके भी खेती श्रमिक दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता. इसलिए वे अपनी खेती द्वारा गरीबों को भोजन उपलब्ध करवाने का सपना देख रहे है. उनके इन प्रयासून से खाना पीना तो अवश्य ही सस्ता होगा.
              मित्रों माधवन के जीवन का एक और स्वर्णिम क्षण तब आया जब पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उनके खेत पर उनसे मिलने और प्रयोगों को देखने गये, राष्ट्रपति से तय १५ मिनट की मुलाकात दो घण्टे में बदल गई, और तत्काल कलाम साहब के मुँह से निकला कि “भारत को कम से कम दस लाख माधवन की आवश्यकता है…”, स्वभाव से बेहद विनम्र श्री माधवन कहते हैं कि यदि मैं किसी उद्यमशील युवा को प्रेरणा दे सकूँ तो यह मेरे लिये खुशी की बात होगी…
               धन्य हो तुम माधवन !!! सच में हमें दस लाख माधवन और चाहिए.
स्त्रोत - blog.sureshchiplunkar.com...
             http://specials.rediff.com/money/2008/dec/23slide1-an-engineer-from-iit-now-a-farmer.html

Saturday, September 18, 2010

अनाज से अधिक लोकतंत्र सड़ गया है...

मित्रों सामान्यतः जब कोई शालीन माना जाने वाला व्यक्ति अपना आपा खो दे तो समझिए कि उसके मर्म पर कोई जबरदस्त चोट पहुची है. उसे किसी व्यक्तिगत क्षति की आशंका या अंदाजा है. या फिर अपनी अक्षमता के प्रति जबरदस्त बौखलाहट. जैसे गृह मंत्री के भगवा आतंकवादवाले बयान को याद करें. आश्चर्यजनक है कि जो व्यक्ति जूते पड़ जाने पर भी आपा ना खोने की हद तक शालीन हो, वो कैसे ऐसा भरकाउ बयान दे सकता है जिससे करोडों लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रया हो? इसी तरह प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा अनाज सड़ने के मामले पर न्यायपालिका को दी गयी घुडकीउल्लेखनीय है. जिस व्यक्ति को संसद में बोलते हुए भी विरले ही सुना जाता हो. जो व्यक्ति अपनी मुस्कान से ही केवल अपनी सभी अच्छी-बुरी भावनाओं को छिपा लेता हो, वो अगर अकस्मात न्यायालय को उसकी औकात बताने लगे. उसे यह नसीहत देने लगे कि अपनी मर्यादा में रहे, तो समझा जा सकता है कि मामला केवल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर बहस का ही नहीं है.
मित्रों आखिर सवाल यह है कि अगर देश में अनाज सड रहे हों और आपकी जनता भी भूखों मर रही हो तो उन्हें मुफ्त अनाज बांट देने में परेशानी क्या है? आश्चर्य तो यह है कि न्यायलय को सबक सिखाने में व्यस्त सरकार के किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति ने इस मामले पर कोई भी सफाई देना मुनासिब नहीं समझा. वैसे जो एकमात्र बाजिब समस्या नज़र आती है वह ये है कि अनाज को गांव-गांव तक पहुचाया कैसे जाय, उसको बांटने का आधार क्या हो. लेकिन अगर नीति बनाने के जिम्मेदार आप हैं और किसी दुसरे स्तंभ को यह अधिकार देना भी नहीं चाहते तो आपको इस तरह की जनकल्याणकारी नीति बनाने से रोका किसने है? खबर आ रही है कि केन्द्र सरकार देश के सभी छः लाख गाँवों तक कंडोम पहुचाने की व्यवस्था कर रही है. इस बारे में नीति बनकर तैयार है और एक स्वयंसेवी संगठन को इसका ठेका भी दे दिया गया है. तो आप गावों तक कंडोम बांट सकते हैं लेकिन अनाज बांटने में आपको बौखलाहट हो रही है.
मित्रों संसद में शरद पंवार ने कहा था कि  केवल ११,००० मीट्रिक टन अनाज सड़ा है, किन्तु  भारतीय खाद्य निगम (एफ सी आई) की ओर से जारी अधिकृत आंकड़ों के अनुसार केवल पंजाब में ही तीन जगहों पर ४९,००० मीट्रिक टन अनाज ऐसा है जिसे गोदामों से उठाया नहीं जा सकता है. पंजाब में ही १.३६ लाख मीट्रिक टन गेंहू पिछले दो साल से खुले में केवल पोलीथीन से ढका रखा है जिस पर से दो मानसून गुजर चुके हैं. जिससे करीब ५० हज़ार टन गेंहू खराब हो चूका है. वर्ष १९९७ से २००७ के बीच १.८३ लाख टन गेंहू, ६.३३ लाख टन चावल, २.२० लाख टन धान और १११ लाख टन मक्का विभिन्न गोदामों में सड़ चूका है.
मित्रों अब हम इस बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस देश में आधी से अधिक जनता गरीबी में जी रही है वह अनाज सड़ जाने का क्या मतलब है. इस अनाज को गरीबों में मुफ्त बंटवाने में सरकार को असुविधा हो रही है, किन्तु मुफ्त कंडोम गाँव गाँव आसानी से पहुंचाए जा सकते हैं. मित्रों अब देख लो ये सरकार हमें कहाँ ले जा रही है, लोगों का चरित्र खराब करना अधिक आवश्यक है. लो कंडोम लो और मज़े करो, नैतिकता का तो कोई स्थान बचा ही नहीं है इस देश में. एक तरफ तो गरीब भूखा है और दूसरी तरफ इन सबको भोग का साधन उपलब्ध करवाया जा रहा है. मित्रों अभी भी समय है जाग जाओ, इस सरकार के भरोसे बैठे रहे तो आने वाली पीढी या तो भूखी रहेगी या चरित्रहीन हो कर भोग में डूबी होगी...
सन्दर्भ : http://www.pravakta.com/.com -  श्री पंकज झां,
            Outlook Magazine -सितम्बर २०१० - श्री अजीत सिंह...

Sunday, September 12, 2010

शर्म करो वामपंथियों और कांग्रेसियों...


मित्रों ये चित्र जो आप देख रहे हैं, क्या आप जानते हैं कि ये किसका है, या किस से सम्बंधित है, या कब लिया गया है???


ये कई प्रश्न हैं जो इस चित्र से जुड़े हुए हैं...

मित्रों ये चित्र दिसंबर २००७ में लिया गया है. अर्थात ये चित्र १३ दिसंबर २००१ को संसद पर हुए आतंकी हमले की छठी वर्ष गाँठ का है. चित्र में एक महिला कुछ सूट बूट पहने बड़े बड़े लोगों से घिरी हुई रो रही है. छोडो भूमिका बांधना अब आप को सत्य बताही देता हूँ.

मित्रों ये चित्र शहीद नानकचंद की विधवा का है, वही नानकचंद जो १३ दिसंबर के आतंकी हमले में आतंकियों का सामना और देश के नेताओं की सुरक्षा करते हुए शहीद हो गए थे. उनकी शहादत की छठी वर्ष गाँठ पर उनकी विधवा देश के कथित नेताओं के सामने विलाप करते हुए उन्हें खरी खरी सुना रही है कि उसे छः साल से कोई सरकारी सहायता नहीं मिली है. उसे एक पेट्रोल पम्प आबंटित हुआ था किन्तु उसे आज तक ज़मीन नहीं मिली है.

एक तरफ तो ये महिला नेताओं को अपनी आपबीती सुना रही है और दूसरी और वामपंथी और कथित सेकुलर के पुजारी खुश हो रहे होंगे की चलो छः साल तो हम अफजल गुरु को फांसी से बचाने में सफल हुए. अब इनके विषय में क्या कहना, इन्हें तो शायद गुजरात में वोटों की फसल लहलहाती हुई दिख रही होगी.

धन्य है ये महिला, फिर भी इसके साथ ऐसा व्यवहार??? शर्म आती है मुझे मित्रों...
धन्य है तू  माँ... इन नेताओं ने भले हे तुम्हे किनारे कर दिया हो, किन्तु ये देश तुम्हारा है. इस देश पर इन नेताओं से अधिक तुम्हारा अधिकार है...इस देश पर तेरे इस प्रेम भाव को मै प्रणाम करता हूँ...

मित्रों बाद में इस महिला को डरा धमका कर यहाँ से बाहर खदेड़ दिया गया. मित्रों अब आप ही मुझे बताओ की मै इन कांग्रेसियों के कौनसा शब्द उपयोग करू जो अपनी ही जान बचाने वालों के परिजनों के साथ ऐसा व्यवहार करते हों.

इन्हें रीढविहीन (spineless) कहना भी इनका सम्मान ही होगा, इन्हें हिंजड़ा कहूँगा तो शायद हिंजड़े भी बुरा मान जाये, क्यों कि उनको भी गुस्सा आता है, उन्हें भी कभी कभी अपने मान अपमान का बोध होता है, किन्तु हमारे नेताओं ने तो अपना आत्मसम्मान पता नहीं किस रिश्वत के तले दबा रखा है??? इन्हें तो बस यही चिंता रहती है कि कैसे हमारे देवी देवताओं के नग्न चित्र बनाने वाले एम एफ हुसैन को भारत वापस लाया जाए, या तेलगी सलेम या शाहबुद्दीन को कोई तकलीफ तो नहीं है, या अफजल और कसाब को जेल में ठीक से चिकन तो मिल रहा है न आदि आदि...

मित्रों है ना परोपकारी सरकारें.. लेकिन खुद की जान की बाजी लगा कर इन घृणित लोगों की जान बचाने वालों का कोई खयाल नहीं... इसीलिये मेरा भारत महान है! क्या अभी भी यकीन नहीं हुआ? अच्छा चलो बताओ, कि ऐसा कौन सा देश है जिसके शांतिप्रिय नागरिक अपने ही देश में शरणार्थी हों... जी हाँ सही पहचाना... भारत ही है। कश्मीरी पंडितों को दिल्ली के बदबूदार तम्बुओं में बसाकर सरकारों ने एक पावन काम किया हुआ है और दुनिया को बता दिया है कि देखो हम कितने “सेकुलर” हैं। कांग्रेस की एक सफ़लता तो निश्चित है, कि उसने “सेकुलर” शब्द को लगभग एक गाली बनाकर रख दिया है। अभी भी विश्वास नहीं आया... लीजिये एक और सुनिये... समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक पाकिस्तानी नागरिक को दस-दस लाख रुपये दिये गये, मालेगाँव बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक मुसलमान को पाँच-पाँच लाख रुपये दिये गये, और हाल ही में अमरावती में दंगों में लगभग ७५ करोड़ के नुकसान के लिये १३७ हिन्दुओं को दिये गये कुल 20 लाख। ऐसे बनता है महान राष्ट्र।

बात हिन्दू मुस्लिम की नहीं है, बात तो इन कमीने नेताओं की है जो हमें ही बाँट रहे हैं, और हमसब धर्मनिरपेक्ष चुप बैठे हैं, चुप क्यों न बैठें आखिर हमें एक सेकुलर राष्ट्र का निर्माण जो करना है.

लेकिन एक बात तो तय है कि जो कौम अपने शहीदों का सम्मान नहीं करती वह मुर्दा कौम तो है ही, जल्द ही नष्ट भी हो जाएगी, भले ही वह सॉफ़्टवेयर शक्ति हो या “महान संस्कृति” का पुरातन देश...
सन्दर्भ- http://blog.sureshchiplunkar.com/2007/12/congrats-secularist-communists.html...
शर्म करो वामपंथियों और कांग्रेसियों...